Thursday, November 19, 2009

भीम के पांव देखने हैं तो खल्लारी आएं....

छत्तीसगढ़ में जो भी पर्यटन और धार्मिक स्थल हैं वहां पर रामायण और महाभारत की गाथा से जुड़ी कई चीजें हैं। महाभारत के महारथी और परम शक्तिशाली भीम का छत्तीसगढ़ से नाता रहा है। नाता तो सारे पांडवों का रहा है। राजधानी रायपुर से करीब 80 किलो मीटर की दूरी पर खल्लारी में माता खल्लारी देवी का मंदिर है। पहाड़ों पर बसे इस मंदिर के पास में ही भीम के पैरों के निशानों के साथ उनका चूल्हा भी है जहां पर वे खाना बनाते थे। वैसे यहां आने के बाद महज भीम के पांव के ही दर्शन नहीं होंगे, यहां देखने लायक काफी कुछ है। लेकिन फिलहाल हम चर्चा भीम पांव की करने वाले हैं।

महाभारत के जुड़े पांडवों के छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर आने के अवशेष हैं। वैसे भी बताया जाता है कि सिरपुर में ही देश का प्रमुख चौराहा था और किसी को भी उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम जाने के लिए इस चौराहे से गुजरना ही पड़ता था। ऐसे में जबकि पांडवों को भी अपना अज्ञातवाश काटना था तो उनका छत्तीसगढ़ के जंगलों में आना हुआ। मप्र के पंचमढ़ी में भी पांडवों का स्थान है। बहरहाल हम बातें करें पांच पांडवों में से एक शक्तिशाली भीम की। भीम के बारे में ऐसा कहा जाता है कि विशालकाय शरीर के भीम जब चलते थे तो धरती पर जब उनके पैर पड़ते थे तो लगता था कि धरती हिल रही है। इस बात का प्रमाण वास्तव में भीम के पैर देखने के बाद होता है और इन पैरों को जब 355 मीटर ऊंची पहाड़ी पर देखने से मालूम होता है कि वास्तव में भीम कितने शक्तिशाली रहे होंगे।

पहाड़ी में उनके पैरों के जो निशाने हैं वो एक तरह से पहाड़ के पत्थर में गड्ढ़ा है। जानकारों का ऐसा मानना कि जब भीम यहां आते होंगे तो उनके पैरों से पहाड़ों में भी गड्ढ़ा हो जाता था। जहां पर भीम के पैरों के निशाने हैं, वहीं पर एक और बहुत बड़ा गड्ढ़ा है जिसे उनका चूल्हा बताया जाता है। इस चूल्हें में ही वे खाना बनाते थे। खल्लारी मंदिर के पुजारी महेन्द्र पांडे बताते हैं कि खल्लारी के पास में ही उस लाक्ष्यागृह के अवशेष हैं जिसमें पांडवों को रखा गया था और बाद में इसमें आग लगा दी गई थी। लेकिन पांडव उस आग से बच गए थे क्योंकि विदुर ने उनको आग से बचने का उपाय कुछ इस तरह से बताया कि आग में ऐसा कौन सा जीव है जो बचने का रास्ता निकाल लेते हैं। इसका जवाब पांडवों ने दिया था कि चूहा। चूहा जिस तरह से सुरंग बनाकर अपनी जान बचा लेता है उसी तरह से पांडवों ने भी लाक्ष्यागृह के नीचे से सुरंग बनाकर अपनी जान बचाई थी।

खल्लारी आने पर भीम पांव और चूल्हे के साथ और भी प्रकृति के कई अद्भूत नजारे देखने को मिलते हैं। इन बाकी नजारों की बातें अब बाद में होंगी। फिलहाल इतना ही। खल्लारी तक पहुंचने के लिए पहले छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तक ट्रेन या फिर हवाई मार्ग से आना पड़ेगा। रायपुर से खल्लारी तक बस से या फिर ट्रेन से जाने का रास्ता है। ट्रेन के रास्ते से जाने पर भीमखोज में उतरना पड़ेगा। बस से सीधे खल्लारी पहुंचा जा सकता है।

महाभारत की सच्चाई के प्रमाण

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होशियारपुर। इस जगह पर और तमाम ऐसे प्रमाण खुदाई में मिले हैं जो पांच हजार साल पुराने महाभारत की सच्चाई बयान करते हैं।

पंजाब के होशियारपुर के इसी गांव में भीम का वो मंदिर भी है जिससे जुड़ी एक ही बहुत विचित्र कहानी। यहीं आसपास है वो किला जिसमें राजा जनमेजय रहा करता था। और जब इस किले की खुदाई हुई तो तमाम हड्डियां इसके अंदर से निकली।

इस जगह पर सर्प मेध यज्ञ हुआ था। इसलिए मान्यता है कि यहां सांप के जहर का कोई असर नहीं पड़ता। सैकड़ों किलोमीटर दूर से सर्प दंश के शिकार लोग यहां आते हैं और कहा ये जाता है कि यहां आते ही वो ठीक भी हो जाते हैं।

मालूम हो कि राजा परीक्षित अभिन्यु के बटे थे और राजा जनमेजय परीक्षित के बेटे थे। यहां पर सर्प मेध यज्ञ के बाद राजा जनमेजय संन्यासी बनकर जंगल में चले गए थे।

अपरा भक्ति के माध्यम - 6

पीर- पैगम्बरों की मजारें किसी का इन्तजार करती हैं ।
सरमद का धड से जुदा हुआ सिर यह बोलता हुआ जामा मस्जिद की सीढियों से लुढ़क रहा था--------
ला इलाही इल अल्लाह ।
औरंगजेब को सब जानते हैं लेकिन उसके भाई दारा शीकोह को बहुत कम लोग जानते होंगे ।
दारा शीकोह सन1940 में कश्मीर की यात्रा की थी और वहाँ के पंडितों से उसको उपनिषदों का पता चाला था। दारा जब वापस आए तब काशी से पंडितों को बुलवाया और उपनिषदों का पर्सियन भाषा में अनुबाद करवाया । दारा का यह काम उपनिषदों को विश्व के चिंतकों के सामनें ला सका।
औलिया सरमद एक यहूदी ब्यापारी था जो यरूशलम से दिल्ली तक की पैदल यात्रा किया करता था।
एक बार की बात है , सरमद की समान बिक न पायी और सरमद चलते - चले काशी से होता हुआ बिहार के एक गाँव में जा पहुंचा । संयोग की बात है उस दिन वहाँ मेला चल रहा था और सरमद अपनीं दूकान वहाँ लगा दिया ।
सरमद दिल भर अपना काम करता रहा और जब रात आनें को हुयी तब दूकान बंद करके उसी जगह विश्राम
करनें लगा । सोचते - सोचते उसके मन में बिचार आया की इस मिट्टी की कब्र में ऎसी कौन सी बात है की
इतनी भीड़ यहाँ इकट्ठी हो रही है । सरमद सोचते - सोचते धीरे-धीरे उस पीर के पास पहुँच गया। सरमद
ज्योंही पीर पर अपना सीर झुकाया वहीं का हो कर रह गया , साड़ी रात वह उसी जगह पडा रहा । सुबह-सुबह गाँव के लोग जब उसे देखे तो उसे उठाया , सरमद उठते ही रो पडा और दोनों हांथों को ऊपर उठा कर बोला-----ला इलाही इल अल्लाह ---अर्थात जब इस मिटटी की कब्र में इतना नूर है तो अल्लाह तेरा नूर कैसा होगा ?
यह छोटी सी घटना सरमद को ब्यापारी से औलिया बना दिया ।
सरमद काशी में कुछ दिन रहनें के बाद पुनः दिल्ली वापिस अगया और जमा मस्जिद के इलाके में घूमता
रहता था । दिल्ली के मुल्लाओं को सरमद का औलिया स्वभाव रास न आया , अंततः १६५९ में उसका सिर
कलम कर दिया गया और सीढियों से लुढ़कता सिर यही बोलता रहा ---ला इलासी इल अल्लाह ।
आप भी पीरों की कब्रों पर जाते होंगे , ज़रा सोचना क्या पता कोई आप का इन्तजार कर रहा हो ?
=====ॐ=======

एक और संसार है

यहाँ इस पृथ्वी पर जितने लोग हैं सब का अपना - अपना संसार है । संसार जिसमें हम जीते हैं वह हमारे
मन का प्रतिविम्ब है जैसा जिस घड़ी मन वैसा उस घड़ी संसार । मन हर पल बदलता रहता है और उसके
अनुसार संसार भी बदलता रहता है । हमारा मन हमें उस संसार को समझनें नहीं देता जिसके अन्दर हमारा मन रचित संसार है।
गीता का संसार गीता-श्लोक 15.1---15.3 के मध्य बताया गया है जिसको इस प्रकार से समझा जा सकता है -----परमात्मा से परमात्मा में आदि-अंत रहित अविनाशी तीन गुणों के तत्वों से परिपूर्ण तीन लोकों में विभक्त तथा जिसकी स्थिति अच्छी तरह से नहीं है एवं जिसको बैराग्यावस्था में जाना जा सकता है वह गीता का संसार है ।
गीता-सूत्र 15.3 से ऐसा लगता है जैसे संसार गुणों के तत्वों से परिपूर्ण भोगों का कुबेर है और आदि गुरु शंकरा चार्य कहते हैं ---ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या । गीता-सूत्र 7.12 ,7.13 , 14.19 , 14.20 , 14.23 , को जब आप देखेंगे तो आप को मिलेगा------संसार में ब्याप्त गुणों का सम्मोहन मनुष्य को परमात्मा से दूर रखता है और गुणों को करता समझें वाला द्रष्टा/ साक्षी रूप में गुनातीत हो कर परमानान्दित होता है ।
गीता के संसार को समझनें के लिए भोग से बैराग्य तक की यात्रा करनी पड़ती है । पहले स्वनिर्मित संसार
को जानों फ़िर गीता का संसार धीरे-धीरे स्वतः स्पष्ट होनें लगेगा जैसे-जैसे बैराग्य घटित होगा ।
=====ॐ=====

एक और संसार है - 2

मनुष्य - सभ्यता को समझनें के लिए यदि पिछले 500-800 वर्षों के इतिहास में मिश्र की पिरामिड्स से
सिंध घाटी की सभ्यता तक, मेसो अमेरिका सभ्यता से मेसोपोतानियन [बैबीलोन - सुमेरु] सभ्यता तक में
देखनें से यह स्पष्ट होता है पहले परमात्मा से जुडनें के अनेक मार्ग थे लेकिन भोग पर चलनें के सिमित मार्ग थे ।
विज्ञान के विकास के साथ -साथ पिछले सौ वर्षों में भोग के साधनों का फैलाव ऐसा हुआ है जिससे पूरा संसार भोग मय हो उठा है । विज्ञान की खोजों का प्रयोग दो कामों के लिए हो रहा है; एक भोग के लिए और दूसरा विनाश के लिए । यह देखकर हैरानगी होती है की जो देश वैज्ञानिक स्तर पर जितनें अधिक आगे हैं वहां के लोग उतने ही अधिक भयभीत हैं--क्या कारण है ?
आज विकसीत देश अन्तरिक्ष में पृथ्वी तलाश रहे हैं क्योंकि उनको इस पृथ्वी के अस्तित्व पर संदेह हो रहा है । यदि कोई नई पृथ्वी मिल भी गयी तो वह कितनें दिन सुरक्षित रह पायेगी ? इस बात पर आज वे लोग नहीं सोचते जो इस पृथ्वी को नष्ट कर रहे हैं। आज का युग विज्ञान का युग है जो तेज गति से भोग युग में
परिवर्तित हो रहा है । अगर भोग साधनों का इस गति से विकास होता रहा तो आगे सौ वर्षों में क्या होगा --
इसकी कल्पना करना भी कठिन होगा ।
बुद्ध - महावीर के वैराग्य का मार्ग निकला भोग से और सभी मार्ग यही कहते हैं--भोग योग का माध्यम है लेकिन आज योग के नाम को भोग से जोड़ा जा रहा है , आज योग की इतनी चर्चा है जितनी शायद पहले कभी भी नहीं हुई होगी , इसका कारण क्या है ? कारण है मौत का भय । भोग के दो दरवाजे हैं ; एक खुलता है सीधे मौत में और दूसरा खुलता है परम धाम में । भोग ही जिनके लिए परम है वे तो जाते हैं औत के मुह में वह भी स्वयं नहीं जाते उन्हें मौत खीच लेती है और जिनके लिए भोग योग का द्वार बन गया होता है वे स्वेच्छा से शरीर को त्यागते हैं ।
गीता कहता है ---दो प्रकार के लोग हैं --एक आस्तिक लोग हैं जिनका केन्द्र परमात्मा होता है और दूसरे हैं
भोगी लोग जिका केन्द्र मात्र भोग होता है , ये लोग परमात्मा को भी भोग का साधन समझते हैं ।
आज आप दुनिया में नजर डालिए की लोग परमात्मा के स्थानों में किस कदर लम्बी - लम्बी कतारों में
भीखारी की तरह खड़े हैं क्यों ? क्योंकि उनके पास बहुत लम्बी मांग की लीस्ट है जो उनसे स्वयं पूरी नही होती ।
गीता कहता है ---कामना , क्रोध, लोभ, मोह एवं अंहकार को अपनें में बसानें वाला अपनें में परमात्मा
को नहीं बसा सकता ---अब सोचिये उन लोगों के बारे में जो बिचारे तुच्छ दे कर परमात्मा को खरीदना
चाहते है ।
====ॐ-----

एक और संसार है - 3

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ गीता--8.6
मनुष्य जीवन भर जिस भाव में जीता है अंत समय में भी उसी भाव से भावित हो कर प्राण त्यगता है
और उसका यह भाव उसे यथा उचित वैसी योनी दिलाता है ।
हिंदू परिवार में जब कोई आखिरी श्वास ले रहा होता है तब उसको गंगा-जल पिलाया जाता है और गीता सुनाया जाता है । जो आदमी जीवन में राग-मदिरा को परम समझ कर अपना जीवन गुजारा हो वह अंत समय में गंगा-जल पी कर रूपांतरित हो सकता है या गीता के श्लोक क्या उसके अन्दर जा सकते हैं ?
हर आदमी हर पल एक चौराहे पर खडा है जहाँ से दो मार्ग निकलते हैं , एक मार्ग पर राजस-तामस गुणों का
आकर्षण होता है और दूसरा मार्ग शून्यता से परिपूर्ण होता है , एक मार्ग संसार में ब्याप्त राग में घुमाता
रहता है तथा दूसरा मार्ग बैराग्य का होता है । राग का मार्ग कहता है --तूं मुझे समझ ले और यदि तूं ऐसा
करनें में सफल हो गया तो मैं तूझे उस मार्ग से मिला दूंगा जो सभी मार्गो का मार्ग है ।
द्वत्य- जीवन में शान्ति की कल्पना करना एक स्वप्न है। दुखों से लोग भागते है लेकिन कोई भाग कर जाएगाभी कहाँ , हम जहाँ भी जाते हैं अपना संसार निर्मीत कर लेते हैं । नर्क का जीवन जीनें वाला यदि भूल से स्वर्ग में पहुँच जाए तो मिनटों में वह वहाँ भी नर्क निर्मित कर लेगा , कर लेगा इकट्ठा अपनें
ईस्ट-मित्रों को , जमा लेगा अपनी मंडली । दुःख से . लोग भागते हैं लेकिन दुःख वह देन है जो आंखों पर
पड़े परदे को उठाता है और कहता है देख ले की मेरे उस पार क्या है ? जो सुख-दुःख में रुक कर अपनें को
समझ लिया वह हो गया गीता का समत्व - योगी जो राग,क्रोध एवं भय रहित परम आनंदित रहता है [गीता-4।10]।
राग में सिमटा राम को कैसे पकड़ पायेगा, मोह का चस्मा पहन कर मोहन को कोई कैसे देख सकता है ?
मोह में डूबा अर्जुन अपनें संग मोहन को नहीं पहचान पा रहा और दूर स्थीत संजय मोहन में परम ब्रह्म
को देख कर कहता है ---जहाँ परम श्री कृष्ण एवं अर्जुन हैं , जीत भी वहीं है --आप ज़रा सोचना , अभी
युद्ध प्रारंभ भी नहीं हुआ है और संजय परिणाम बता रहे हैं वह भी धृतराष्ट्र को , क्या गुजरी होगी बिचारे
ध्रितराष्ट्र पर ... ।
योग का मार्ग एवं भोग का मार्ग दोनों मार्ग सामनें हैं , देखना आप को है की आगे किस मार्ग को पकड़ना है ।
====ॐ======

एक और संसार है - 4

क्या आप जानते हैं ?
# निजाम हैदराबाद रात में अपना एक पैर नमक से भरे एक लोटे में डाल कर रखते थे क्योंकि
भूत-प्रेतों से उनको भय था।
# महान मनो चिकित्सक सिगमंड फ्रायड को भूत- प्रेतों से डर लगता था ।
# Oliver Joseph Lodge[1851-1940 AD ] जो विश्व ख्याति के वैज्ञानिक थे जिनको माइक्रो-वेव , स्पार्क प्लग , वाकूंम ट्यूब , बेतार का तार आदि शोधों का श्रेय मिला हुआ है , वे कहते हैं---विज्ञान की आज की बात कल गलत साबित होनें ही वाली है लेकिन भूत- प्रेतों की बात सत है और सत ही रहेगी ।
# प्लेटो [ 427-347 BCE ]का कहना है----शरीर समाप्ति के बाद भी कुछ है ।
# २०वी शताब्दी में L.Rom Habbard तथा Edgar Cayce पिछले जन्मों के आधार पर एक नहीं अनेक
ऐसे काम किए जिनसे शरीर समाप्ति के बाद का रहस्य स्पष्ट होता है ।
# गुर्जियाफ़ के शिष्य P.D.Ospensky मौत के आखिरी क्षण को देख कर बोले --शरीर तो समाप्त हो गया है
लेकिन मैं अभी हूँ ।
विज्ञान कहता है ------
ऊर्जा को न तो बनाया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है । आत्मा इस देह में प्राण-ऊर्जा
के रूप में है फ़िर इस ऊर्जा का शरीत समाप्ति पर क्या होता है ?
विज्ञान यह भी कहता है ----भारी तारे जब मरते हैं तब वे black hole में बदल जाते हैं । ब्लैक होल में
इतनी शक्ति होती है की वे आस-पास के तारों को अपनें अंदर खीच लेते हैं और भूत-प्रेतों में भी असीमित
ऊर्जा होनें की बात कही जाती है ।
गीता-सूत्र 8.6 , 15.8 को एक साथ देखनें से मालुम होता है ---सघन अतृप्त कामनाएं मनुष्य जब शरीर
छोड़ता है तब मन के साथ आत्मा के साथ होती हैं और ऐसा आत्मा भ्रमणकारी होता है जो कामनाओं को
पूरा करनें के लिए यथा उचित माध्यम की तलाश करता रहता है ।
वैज्ञानिकों का ब्लैक होल और भूत-प्रेत क्या एक जैसे नहीं दीखते ?
आप उस आत्मा के सम्बन्ध कैसा विचार रखते हैं जो है तो निर्विकार लेकिन उसकी ऊर्जा का प्रयोग करके
मन उसे भी ऐसा बना देता है जो बाहर - बाहर से स विकार जैसा दीखता है ?
गीता का प्रारम्भ विज्ञानं से यदि होता है तो उत्तम है लेकिन रास्ते में विज्ञान कहीं भी सरस्वती नदी की तरह
गीता- गंगा में लुप्त हो सकता है , यदि ऐसा हुआ तो अति उत्तम ।
====ॐ=====

फ़िर यह क्या है ?

यह बात सब के मन-बुद्धि में एक बार नहीं अनेक बार दिन में आती है लेकिन हम सब चूक जाते हैं । जब
यह बात आए की यह क्या है ? उस समय उस बिषय/ बस्तु पर नहीं सोचना चाहिए बल्कि उस पर सोचना चाहिए जिससे यह बात उपज रही होती है । जब हमारे अन्दर यह बात आती है --यह क्या है ? उस समय हमारे अन्दर उस बिषय या बस्तु से मिलती- जुलती जानकारी हमारे अन्दर होती है , यह क्या है ? स्वयं में एक भ्रम का रूप है और भ्रमित बुद्धि में भ्रम का इलाज नहीं होता । गीता कहता है [गीता- 2.16]- सत्य भावातीत है ---नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः यह वही बात है जिसको जेकृष्णामूर्ति कहते हैं ----choiceless awareness और जेसस क्राइस्ट कहते हैं ---judge ye not तथा गीता का मूल-मंत्र --सम-भावयोग का आत्मा भी भावातीत की स्थिति ही है ।
पिछले एक साल में गीतामोती एवं गीता तत्त्व विज्ञान के माध्यम से हम आप लोगों से जुड़े हुए हैं और
अभी तक लगभग दो सौ लेखों से हमने आप को गीता के आधार पर उन असत्यों को दिया जिनसे आप को
सत्य की भनक मिल सके लेकिन यहाँ जब श्री राम , श्री कृष्ण जैसे अवतार तथा वशीष्ट , कपिल मुनि
जैसे ऋषि असफल हो गए और परमहंस रामकृष्ण , योगानंद , आदि गुरु शंकराचार्य जैसे लोग असफल
हो कर गए तो फ़िर मेरा यह प्रयत्न तो कोई स्थान नहीं रखता लेकिन फ़िर भी कुछ करते रहना में कुछ तो है ही ।
गीता [गीता-श्लोक 2.42-2.44 तक तथा 12.3-12.4 ] कहता है -------
ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की है और एक मन-बुद्धि में राम- काम को एक साथ रखना सम्भव नहीं ---बस इतनी सी बात यदि अन्दर अपनी जगह बनाले तो समझना होश का आगमन हो चुका है ।
====ॐ=====

आप क्या जानना चाहते हैं ?

गीता-मोती में रुची रखनें वाले हमारे एक मित्र जानना चाहते हैं -------
क्या आप मीरा , नानक एवं कबीर को पहचान लेंगे यदि वे आप को मिल जाएँ तो ?
आप की आतंरिक यात्रा कहाँ तक पहुँची है ?
मेरे प्यारे मित्र !
यहाँ कौन किसको पहचानता है ? और कितना पहचानता है ? यदि पहचान सही हो तो प्रश्न क्यों उठें और
यदि पहचान सही हो तो विबाद क्यों खडा हो ? यहाँ सभी दूसरे को पहचाननें में जुटे हैं कोई अपनें को नहीं
पहचानना चाहता। जब तक हम स्वयं को नहीं पहचानते तब तक दूसरे को पहचानना सम्भव नहीं ।
जब तक हमारे में पहचाननें की ऊर्जा बहती रहेगी तब तक हम उसे नहीं पहचान सकते , पहले संदेह जिस
ऊर्जा से पैदा हो रहा है उसे रूपांतरित करनें के बारे में सोचना चाहिए ।
यदि मीरा , नानक, कबीर मुझे मिलें तो मैं उन्हें नहीं पहचान पाउँगा ? यह ध्रुव सत्य है , जब तक मेरे
ह्रदय में बहनें वाली ऊर्जा की आबृति उन लोगों के हृदयों की ऊर्जा की आबृति के बराबर नहीं होती तब तक मैं
उन लोगों को कैसे पहचान सकता हूँ , मीरा को पहचान नें के लिए मीरा जैसा ह्रदय चाहिए , नानक को पहचाननें के लिए नानक जैसा ह्रदय चाहिए और कबीर को समझनें के लिए कबीर जैसा ह्रदय चाहिए ।
नानक पंजाब से पूरी की यात्रा में कुछ दिन कबीर के साथ काशी में गुजारे थे लेकिन उस दौरान उनमें कोई
वार्ता न हो पाई । नानक के जानें के बाद कबीरजी का एक शिष्य पूछा, गुरुजी! हम लोग प्रसन्न थे आप दोनों के मध्य जो वार्ता होती उसको सुननें के लिए लेकिन ऐसा मिला हुआ अवसर हाँथ से निकल गया , इस बात पर हम लोगों को दुःख जरुर है । कबीरजी उस शिष्य की ओर देखा और भरी आंखों एवं भरी आवाज में बोले ,
बेटा! वार्ता तो हुई थी ....जो उनको बोलना था , वे उनको बोले , मैं सूना और जो मुझे कहना था वह मैं कहा और वे सुने
यदि तुम सब न सुन पाये तो मैं क्या कर सकता था ?
यहाँ कौन किस को पहचानता है , क्या पत्नी पति को पहचानती है ? क्या पति अपनें पत्नी को पहचानता है ?
क्या बेटा अपनें माँ- पिता को पहचानता है ?
श्री राम चौदह साल जंगल में रहे उनका साथ कितनें लोग थे , उनका साथ देनें वाले कितनें लोग थे? श्री राम
को पहचाना जंगल के पशु- पक्षियों नें , उनका साथ निभाया उन्होंनें हम लोग तो तब भी दर्शक थे और आज
भी दर्शक बनें हुए हैं , युग बदल गया लेकिन हम लोग आज भी वहीं बैठे हैं ।
मेरे प्यारे मित्र ! मैं कोई गुनातीत गीता योगी नहीं हूँ मैं एक टेक्नोक्रेट था और पिछले पच्चास वर्षों तक संसार के सम्मोहन में गुजारा है और अब गीता के माध्यम से आप जैसे प्रेमियों के संपर्क में हूँ ।
आप मेरी भाषा पर ध्यान न दे , आप अपनें साथ गीता को रखें और अपनें को गीता में खोजें ऐसा करते रहनें
से आप एक दिन गीता के परम श्री कृष्ण को भी पहचान लेंगे और धन्य हो उठेगें ।
मैं अपनें लेखों में गीता के श्लोकों को नहीं देता मात्र उनका सन्दर्भ अंक देता हूँ जिस से आप स्वयं उन श्लोकों
को गीता में पकडनें का प्रयत्न करें । मैं तो मात्र एक माध्यम हूँ जो आप और गीता को जोडनें का काम
कर रहा है । आप मेरी आतंरिक यात्रा की लम्बाई - चौडाई जानना चाहा है जिसको मैं अगले अंक में दूंगा।
परम श्री कृष्ण आप को अपनें से जोड़े रखें ।
====ॐ=========

मेरी गहराई क्या है ?

हमारे एक मित्र जानना चाहते हैं -----आप की आतंरिक यात्रा कहाँ तक पहुँची है ?
प्रिय मित्र !
ह्रदय में अब्यक्त भाव की लहरे उठती हैं और जब इन लहरों का संपर्क मन- बुद्धि से होता है तब यह
भावातीत अब्यक्त भाव निर्विकार न रह कर सविकार हो जाता है । जब तक निर्विकार भावों की लहरें
ह्रदय में रहती हैं इनका संचालन आत्मा- परमात्मा से होता रहता है क्योंकि आत्मा- परमात्मा का इस देह में केन्द्र ह्रदय है लेकिन जब ये लहरें मस्तिष्क में पहुंचती हैं तब इनका संचालन गुणोंके पास आजाता है ।
ह्रदय प्रीति आधारित है और मस्तिष्क तर्क आधारित । तर्क की ऊर्जा संदेह से निकलती है --जितना गहरा
संदेह होगा , उतना गहरा तर्क होगा और फलस्वरूप उतना ही गहरा चिंतन होगा। क्या आप समझते हैं की
संदेह से भरीबुद्धि सत्य को पकड़ सकती है ? यह असंभव है क्योंकि भ्रमित बुद्धि में मात्र प्रश्न होते हैं , प्रश्नों
का हल नहीं होता ।
आज के विज्ञान का आधार संदेह है , वह वैज्ञानिक उतना ही बड़ा वैज्ञानिक होगा जितना बड़ा उसका संदेह होगा ।
क्वांटम मेकैनिक के नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक मैक्स प्लैंक कहते हैं ---विज्ञान प्रकृति को कभी नहीं
पकड़ सकता । प्रकृति सत्य है और सत्य को जाननें के लिए संदेह नहीं श्रद्घा चाहिए जो विज्ञान के पास
नहीं है ।
मेरे प्यारे मित्र ! माप - तौल में रस तो है ----ऐसा लगता है लेकिन इस रस में अमृत की बूंदे नहीं होती , इसमें बिष का बीज होता है । एक बात सोचना -----जब रहना ही है तो अनंत में क्यों न रहा जाए क्यों सिकुड़ कर स्व निर्मित पिजडे में रहें जो एक भ्रम की उपज है ।
मैं कभी अपनी गहराई जाननें की कोशीश तो किया नहीं और जब तक चाहता रहा एक मिनट के लिए भी
चैन न था । अब तो मस्त हूँ और सब की मस्ती के लिए सब को कहता हूँ ---अब और कितना और भाग
लेगा आजा करले कुछ विश्राम , गीता में ।
====ॐ======

अपरा भक्ति के माध्यम--भाग - 1

क्या कभी हमारे अन्दर ऎसी सोच उठती है की हम परमात्मा को क्यों चाहते हैं ?
खोज के लिए माध्यम चाहिए चाहे खोज भोग की हो या भगवान् की और हमारे पास माध्यम के लिए
तन, मन एवं बुद्धि हैं । मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो स्व आश्रितों के लिए घर का निर्माण करता है और
प्रभू के लिए भी मन्दिर के रूप में उनका घर बनाता है । ऎसी सूचनाएं जो माध्य से जानी जाती हैं वे सभींअपरा श्रेणी में आती हैं । मन्दिर , मूर्ती , भजन , कीर्तन, ध्यान-विधियां, तप तथा साधना के अन्य माध्यम सब अपरा भक्ति के माध्यम हैं ।
बीसवीं शताब्दी के जानें मानें मनोवैज्ञनिक सी जी ज़ंग कहते हैं---मध्य उम्र के लोगों में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसके अन्दर किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच न हो । फ्रेडरिक नित्झे जैसे लोग कहते हैं ----
परमात्मा शब्द भयभीत लोगों की उपज है यदि ऐसी बात है तो बुद्ध-महाबीर को किस का भय था , वे दोनों तो राजा थे , चंन्द्रगुप्त को क्या भय रहा होगा जो अपनें आखिरी वक्त में जैन- भिक्षुक बन गए और
उनके पोते अशोक महान अपनें अंत समय में बुद्ध - भिक्षुक बन कर अपना जीवन गुजारा ।
मनुष्य सही तौर पर परमात्मा से तब जुड़ता है जब वह सुख या दुःख की आखिरी झलक देखता है ।
गीता में परम श्री कृष्ण कहते है ---परमात्मा न सत है न असत और परमात्मा सत भी है और असत भी है , पर अर्जुन कहते हैं ---हे प्रभू! आप सत-अ सत से परे परम ब्रह्म हैं ।
परमात्मा को जो जानना चाहेगा वह चूक जाएगा और परमात्मा में जो अनजानें में जियेगा वह पाजायेगा।
परमात्मा कोई चीज नहीं जिसको खोजना है , परमात्मा से परमात्मा में यह वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड है जिसमें
हम सब हैं फ़िर उसे हम क्यों खोज रहे हैं ।
वह जिसको अपनें घर के एक अबोध बच्चे में श्री कृष्ण नहीं दिखे उसे मथुरा-वृन्दावन में क्या ख़ाक दिखेंगे ?
=====ॐ=========

अपरा भक्ति के माध्यम - भाग ..2

स्मृतियाँ आगे नहीं बढनें देती और आगे सरकते रहनें का नाम जीवन है ।
स्मृति में वह है जो गुजर चुका है और हमें अपनें को उसके लिए तैयार करना है जो आनें वाला है तथा जो अज्ञेय है ।
प्रोफेसर आइंस्टाइन कहते हैं --ज्ञान दो प्रकार का है ; एक वह जो किताबों से मिलता है और दूसरा वह जो चेतना से
बूँद-बूँद टपकता है - पहला ज्ञान मुर्दा ज्ञान है तथा दूसरा सजीव ज्ञान है । मन में स्थित सूचनाएं वह हैं जो गुजरे
वक्त की हैं इनके आधार पर हम आगे की सोच नहीं पैदा कर सकते और यदि इनके आधार पर अगला कदम
रखते हैं तो वह कहाँ पडेगा कुछ सोचा नहीं जा सकता। जीवन में हर पल नया है यहाँ कुछ भी पुराना नहीं अतः
जीवन की हर सोच भी नयी होनी चाहिए , इस बात को कुछ लोग कहते हैं --live moment to moment . लेकिन
यह बात लोगों के मन में भ्रम पैदा करती है । live moment to moment का अर्थ है ...हर पल होश मय होना
चाहिए।
गीता में श्री कृष्ण अपनें 556 श्लोकों में से 100 से भी कुछ अधिक श्लोकों के माध्यम से स्वयं को परमात्मा
बतानें के लिए लगभग 150 उदाहरणों को देते हैं लेकिन अर्जुन के ऊपर इनका कोई असर नहीं पड़ता ।
अर्जुन गीता में अंत तक सब कुछ स्वीकरते तो हैं लेकिन ऊपर ऊपर से , दिल से नहीं क्योंकि वे तामस
गुन के प्रभाव में हैं और मोह- भय प्रभावित ब्यक्ति ऐसा ही रहता है।
अपरा - माध्यमों का काम है अन्तः करन में श्रद्घा की लहर पैदा करना और जब ऐसा होता है तब परा भक्ति
उदित होती है । अपरा अर्थात वह जो तन,मन एवं बुद्धि से हो और परा वह जिसमें जिस्म के कण-कण में
चेतना का संचार होता हो । अपरा भक्ति परा का द्वार है और यह द्वार तब खुलता है जब मन -बुद्धि स्थिर हों ।
====ॐ=======

अपरा भक्ति के माध्यम - 3

अपरा - भक्ति माध्यमों में मन्दिर का स्थान अहम् है । भारत में 51 शक्ति पीठ तथा 12 ज्योतिर्लिन्गम प्राचीनतम स्थान हैं जहाँ अपरा - भक्ति से परा में प्रवेश पाना सुगम है। शक्ति - पीठ एवं ज्योतिर्लिन्गम के स्थानों में क्रमशः थानेश्वर तथा काशी का नाम प्रमुख है। थानेश्वर वह प्राचीन स्थान है जिसके सम्बन्ध में गीता कहता है ---धर्म क्षेत्रे कुरु क्षेत्रे .....गीता - श्लोक - 1.1 लेकिन आज लोग इस नाम को भूल चुके हैं । शक्ति-पीठ तथा जोतिर्लिन्गम का सीधा सम्बन्ध शिव से है अतः हम कह सकते हैं की अपरा-भक्ति के माध्यमों में शिव- भक्ति प्राचीनतम है ।
काशी विश्वनाथ का मन्दिर 1669 में औरंगजेब द्वारा बरबाद कर दिया गया था जो 111 वर्षों तक [1780 तक ] सही ढंग से ठीक नहीं हो पाया था लेकिन इंदौर की महारानी अहिल्या बाई जो होलकर परिवार की थी , उन्होंनें इसे ठीक करवाया और पंजाब के राजा रंजित सिंह 1839 में इस पर स्वर्ण-कलश रखवाया था। काशी नरेश का नाम गीता [गीता.सूत्र 1.17 ] में भी है लेकिन उनके परिवार का कोई ब्यक्ति इस मन्दिर में रूचि नहीं दिखाई थी , यह बात सोचनें लायक है ।
यूनान में डेल्फी का मन्दिर जहाँ सूर्य की पूजा की जाती थी वह लगभग 800 BCE का माना जाता है ।
चंदेला राजाओं द्वारा निर्मित आज का खजुराहो जिसको पहले खजूर वाटिका कहते थे लगभग 10-11 AD का है जो तंत्र साधना से सम्बंधित है । मदिरों के इतिहास में अयोध्या का नाम प्रमुख है जहाँ 5-6 AD में
बुद्ध मन्दिर थे और 7-8 AD में हिंदू मन्दिर आगये । जगन्नाथ पुरी , बदरीनाथ तथा केदारनाथ आदि के
मन्दिर लगभग 8AD के आस-पास के हैं। 9AD में पागन [मेमार] की पहाडियों को काट कर बुद्ध मंदिरों
का एक भब्य शहर बनाया गया था जिसको मंगोल लोग नष्ट कर दिए लेकिन अवशेष आज भी उन भक्तों की
याद को ताजी करते हैं।
मन,मन्दिर , मूर्ती और पूजा का गहरा आपसी सम्बन्ध है । मन का अपना विज्ञान है ; यह एक समय में
दो को अपनें में नहीं बिठाता अतः पूजा करनें वाला जब तक यह जानता रहता है की वह पूजा कर रहा है तब तक वह अपरा भक्ति में होता है लेकिन धीरे-धीरे जब वह सरक कर परा में पहुँच जाता है तब वह यह भूल जाता है की वह कहाँ है? वह क्या कर रहा है?
अपरा का काम है परा के द्वार को खोलना और यह तब सम्भव है जब अपरा में परम प्यार की लहर पैदा हो सके ।
=====ॐ=======

अपरा भक्ति के माध्यम- 4

जो तन - मन से निर्विकार है उसको तपोभूमि , बुद्ध- क्षेत्र तथा ऊर्जा- क्षेत्र अपनीं ओर खीचते हैं ।
एक बार बुद्ध श्रावस्ती के जंगल से आनंद एवं अपनें अन्य भिक्षुकों के साथ गुजर रहे थे । चलते- चलते बुद्ध
एक पेड़ के पास कुछ देर रुके और उसकी ओर चल पड़े , उस पेड़ के नीचे कुछ समय ध्यान में खोये रहे और
फ़िर अपनी यात्रा पर निकल पड़े । रास्ते में आनंद मन ही मन में सोचते रहे की आखीर उस पेड़ में ऎसी कौन सी बात थी जो भंते को अपनी ओर खीच ली , यह आनंद की सोच उनको बुद्ध से पूछनें के लिए बाध्य कर दी ।
बुद्ध कहते हैं ----आनंद इस पेड़ के नीचे कभी कश्यप ऋषी ध्यान किए थे भला इस परम पवित्र भूमि को मैं
कैसे भूल सकता हूँ ?
तपोभूमि , बुद्ध-क्षेत्र तथा ऊर्जा- क्षेत्र वह स्थान हैं जहाँ समय-समय पर तपश्वी , साधक एवं बुद्ध पुरूष साधना
किए हुए होते हैं । ध्यान के समय ध्यानी के शरीर से जो परम- ऊर्जा [cosmic energy ] का विकिरण होता है वह ऊर्जा ऐसे स्थानों में समाई होती है और जब पुनः कोई उस श्रेणी का साधक वहाँ ऐ गुजरता है तब वह क्षेत्र उसे जाना- पहचाना लगता है तथा वह ब्यक्ति उस क्षेत्र की ओर खीचनें लगता है ।
तपोभूमि साधक के लिए ऐसी होती है जैसे गोदी के बच्चे के लिए उसकी माँ की गोदी होती है ।
सिद्ध - स्थान ज्ञात- अज्ञात दोनों प्रकार के होते हैं । साधना में खोया साधक जहाँ बैठ जाता है वह
स्थान ऊर्जा-क्षेत्र बन जाता है चाहे उसकी सघनता कुछ भी क्यों न हो । जानें या अनजानें में जहाँ पहुंचनें
पर तन में बहनें वाली ऊर्जा का रुख बदल जाय वह स्थान बुद्ध - क्षेत्र होता है जहाँ के अनुभव में जिया तो जा
सकता है लेकिन उस अनुभव को ब्यक्त करना अति कठिन होता है ।
बुद्ध ऊर्जा-क्षेत्रों का निर्माण करते हैं , उनके लिए जो भविष्य में बुद्ध बननें वाले होते हैं।
====ॐ=====

अपरा भक्ति के माध्यम - 5

अपरा भक्ति के माध्यमों में ध्वनी एक प्रमुख माध्यम है ।
गीता में श्री कृष्ण कहते हैं ---------
मुनियों में वेद व्यास [ गीता- 10.37 ], छंदों में गायत्री [गीता- 10.35 ], तीनों वेद [गीता-9.17 ], वेदों में
ॐ [गीता- 7.8 , 9.17 ], मैं हूँ ।
गीता श्लोक 7.8 में एक और महत्वपूर्ण बात यह है --शब्द का स्वभाव है आकाश में रहना ।
अब आप गीता की इन बातों पर सोचिये जितना सोच सकते हों लेकिन अंततः आप किसी भी नतीजे पर नहीं
पहुचनें वाले ।
ध्वनी क्या है ?, किस से है , और कहां नहीं है? को वैज्ञानिक पिछले तीन सौ वर्षों से जाननें की कोशिश में
उलझे पड़े हैं । वैज्ञानिक खोज जितनी आगे बढती है वैज्ञानिक और समस्याओं में उलझ जा रहे हैं ।
Pythagorus[569-475 BCE ] जब विज्ञान शब्द भी नहीं था उस समय बोले----सभी ग्रहों की अपनी-अपनी धुनें हैं । पाइथागोरस की इस बात से आश्चर्य होता है क्योंकि उस समय तक यह भी पता न था की ग्रहों में गति है ।
विज्ञान यह कहते हुए ब्रह्मांड का नक्शा बनानें में ब्यस्त है की यहाँ अन गिनत तारे हैं, अन गिनत तारा मंडल
हैं, अन गिनत गलेक्सीज हैं और न जानें और क्या-क्या है ? वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड जहाँ यह सब है वह सिमित है और उसका आदि- अंत भी है। वैज्ञानिक ब्रह्मांड एक आर्केस्ट्रा जैसा है जहाँ अनंत ग्रहों , उपग्रहों तथा अन्यों की ध्वनियाँ गूँज रही हैं । क्या आप ऐसा नहीं समझते --ब्रह्माण्ड की ये सभी ध्वनियाँ मिल कर एक अलग ध्वनी का निर्माण करती होंगी ? वेदों में ॐ तथा छंदों में गायत्री से निकलनें वाली धुन वही धुन है जो सीधे ब्रह्म से जोड़ती है और ब्रह्म ब्रह्माण्ड का नाभि केन्द्र है । अभी - अभी आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक पृथ्वी की धुन को पकडनें में कामयाब हुए हैं ।
गीत- संगीत , नृत्य , भजन- कीर्तन आदि में जो धुन गूंजती है और जो हम सब के अन्तः करन की ऊर्जा
को कम्पित कर देती है वह ध्वनी ॐ ध्वनी ही है ।
=====ॐ======

ध्यान में क्या घटित होता है --भाग १

ध्यान मन-बुद्धि से परे की उड़ान है जहाँ चेतना का पूर्ण फैलाव होता है और देह में इन्द्रियाँ,मन, बुद्धि तथा अन्य तत्व नीर्विकार स्थिति में आ जाते हैं ।
मनुष्य मात्र एक ऐसा प्राणी है जिसका जीवन मार्ग एक अंडाकार है जिसमें दो केन्द्र हैं--भोग एवं भगवान्।
मनुष्य दो मार्गी होनें के कारण हमेशा तनाव में रहता है। मनुष्य जब भोग में पहुंचता है तब परमात्मा की स्मृति उसे वहाँ रूकनें नहीं देती और जब भगवान् में रमना चाहता है तब भोग का आकर्षण उसे अपनी ओर खीचता है ।
मनुष्य एक रेडीओ सेट की तरह से है जो भोग की संबेदनाओं को तो पकड़ता ही है लेकिन परमात्मा की भी संबेदनाओं को पकड़ सकता है ।
वैज्ञानिकों की खोज बताती है ----ध्यान में डूबे ब्यक्ति के अंदर ऊर्जा की आब्रिती [frequency] दो लाख प्रति सेकंड हो जाती है जबकि एक सामान्य ब्यक्ति में यह तीन सौ पचास होती है। जब आब्रिती दो लाख से उपर जानें लगाती है तब वह ध्यानी अपनें को शरीर से बाहर होनें जैसा अनुभव करनें लगता है।
ध्यान जैसे -जैसे आगे बढता है अन्तः करन में शून्यता भरनें लगती है । शून्यता जब अपनें शिखर पर पहुंचती है तब आत्मा शरीर में गुणों से मुक्त हो जाता है । तंत्र शास्त्र में इस स्थिति को चक्रों की पकड़ से आत्मा का आजाद होना कहा जाता है ।
जब परम शून्यता आती है तब शरीर के कण-कण से आत्मा आजाद होता है और इसमें जो ध्वनी निकलती है उसे झेन परम्परा में ध्वनि रहित ध्वनि [soundless sound] कहते हैं।
ध्यान में पभु की छाया पानें के लिए समाधि से गुजरना पड़ता है और गीता कहता है की ऐसे ब्यक्ति
दुर्लभ होते हैं ।

=====ॐ=======

ध्यान में क्या घटित होता है ?

आग में तपनें के बाद सोना अपनी चमक बिखेरता है और मनुष्य ध्यान से बुद्ध बनकर लोगों को आकर्षित करता है।
ध्यान के रहस्य में डूबने के पहले हम गीता के 11 श्लोकों को देखते हैं जिनके आधार पर ध्यान - रहस्य को जानना
कुछ आसान सा हो सकता है ।
1- shlok ...18.49 आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है ।
2- श्लोक...18.50 कर्म-सिद्धि ज्ञान-योग की परा निष्ठा है ।
3- श्लोक...18.54 परमात्मा में डूबा परा-भक्त होता है ।
4- श्लोक...18.55 परा भक्त परमात्मा मय होता है ।
5- श्लोक...6.29,6.30,9.29 परा भक्त के लिए परमात्मा निराकार नहीं रहता ।
6- श्लोक...7.3,7.19,12.5,14.20 परा भक्त दुर्लभ होते हैं।

कर्म,भक्ति एवं परमात्मा के सम्बन्ध में गीता के कुछ चुनें गए श्लोकों को आप अभी देखे अब इन पर सोचनें
का काम आप का है और यही सोच आप को बुद्धि-योग में प्रवेश करा सकती है ।
माध्यमों से होनें वाली भक्ति अपरा-भक्ति होती है , अपरा भक्ति का फल है , परा भक्ति जो अनुभूति अब्याक्तातीत
है उसे प्रदान करती है और परा-भक्त बुद्ध होता है । परा-भक्ति तन,मन एवं बुद्धि से होती है जिसको देखा तथा
समझा जा सकता है लेकिन जब वही भक्त परा में प्रवेश कर जाता है तब उसका तन,मन एवं बुद्धि अपरा के
द्वार पर रह जाते हैं , उसके पास न तन होता है, न मन होता है और न वह बुद्धि होती है , उसकी चेतना का
फैलाव इतना अधिक हो जाता है की चेतना ब्रह्म से मिल जाती है । चेतना का आंशिक मिलन के समय वह
योगी समाधि में होता है और जब समाधि टूटती है तब वह कस्तूरी मृग की तरह बेचैन हो कर उस समाधि के
अनुभव को पुनः पानें के लिए भागनें लगता है ।
====ॐ========

स्व की समझ ही ध्यान है

आनंद बुद्ध से पूछते हैं-----भंते! निर्वाण में आप को क्या मिला ? बुद्ध कहते हैं ---मिला वह जो पहले से था लेकिन छूट गया वह सब जिसको मैं पकड़ कर बैठा था । बुद्ध का इशारा जो समझ गया , वह ध्यान में उतर गया। रमन महर्षी कहते थे ---witnessing the source of thaughts is meditation. क्या हमें रमन महर्षि की बातसे यह समझना चाहिए कि मन-साधना का दूसरा नाम ध्यान है ? मन-साधना का प्रारंभ बिषयों से होता है , बिषयों को समझ कर इन्द्रियों को समझना होता है और जब इन्द्रियों कि समझ हो जाती है तब मन - ध्यान प्रारंभ होता है । मन दो प्रकार कि सूचनाओं को अपनें में रखता है ; वर्तमान की सूचनाएं जो हर पल बदलती रहती हैं और भूत-काल कि सूचनाएं जो कोडेड रूप में पहले से पड़ी होती हैं । बिषय-इन्द्रिय को समझनें से वर्तमान की पकडों से तो बचा जा सकता है लेकिन भूत काल की सघन पकडों से कैसे बचा जा सकता है क्योंकि मन जब वर्तमान में बिषयों से अलग हो जाता है तब भूत काल की सूचनाओं पर मनन करनें लगता है अतः रमन महर्षी की बात को ध्यान में रख कर बिचारों का पीछा करते रहनें से निर्विचार की स्थिति मिल सकती है। मन जब निर्विचार हो जाता है तब ऊर्जा ऊपर की ओर उठनें लगती है ।
समुद्र की लहरों को आप देखे होंगे , उनको देखनें से ऐसा नही दिखता की समुद्र में कोई स्थिर स्थान भी होगा।
समुद्र की लहरों को पकड़ कर यदि नीचे की यात्रा की जाए तो वह तह मिल जायेगी जो स्थिर होती है और जिससे लहरें ऊपर उठती हैं । मन भी कुछ इस तरह ही है , मन की तरंगें जहाँ से उठती हैं वह तरंग रहित होता है तथा निर्विचार होता है । मन साधना में उस स्थान को पकड़ना पड़ता है । जैसे पूनम के चाँद के प्रतिबिम्ब को शांत झील में देख कर उसके बिपरीत दिशा में चलनें से मूल चाँद मील सकता है वैसे शांत चित पर प्रभु का प्रतिबिम्ब देख कर परा - ध्यान में पहुँच कर समाधि में प्रवेश किया जा सकता है ।
विचारों का सम्बन्ध औरों से होता है और औरों पर अपनीं ऊर्जा को लगानें से अपनें को क्या मिलनें वाला है ।
अपनीं ऊर्जा को मैं कौन हूँ की सोच पर लगानें से ध्यान में प्रवेश मिलता है । परिधि से केन्द्र की यात्रा का नाम ध्यान है ; परीधि है भोग से परिपूर्ण यह संसार और केन्द्र है परमात्मा ।
====ॐ======

परम शून्यता क्या है ?

क्या आप ऐसे ब्यक्ति की कल्पना कर सकते हैं ?
जिस को संसार की कोई बस्तु आकर्षित न करती हो , बुद्धि में कोई संदेह न आता हो , जो कामना क्रोध लोभ भय मोह एवं अंहकार से अप्रभावित रहता हो , जो कभी स्वप्न न देखता हो जिसका मन भूत एवं वर्तमान की स्मृतियों से खाली हो-- तो वह ब्यक्ति कैसा होगा ? महावीर 2500 वर्ष इशा पूर्व में निर्ग्रन्थ होनें की बात कही थी और एक जर्मन विचारक विल्हेम रेक महावीर की बात को 20 वी शताब्दी के मध्य में आकर दुहराया , क्या निर्ग्रन्थ ब्यक्ति ठीक वैसा होता होगा जैसी बात ऊपर बताई गई है ? सन 1950 के आस-पास मनोवैज्ञानिक सी जी ज़ंगकहते हैं ----मध्य उम्र के लोगों में शायद ही कोई ऐसा ब्यक्ति मिले जिसके अंदर परमात्मा की सोच न हो ।
गीता श्लोक 2.55--2.72 , 14.21--14.27 तक में ऐसे ब्यक्ति की बात बताता है जिसकी चर्चा उपर की गयी है ।
यदि आप निर्ग्रन्थ होना चाहते हैं जो ठीक वैसा होता है जैसे ब्यक्ति के बारे में ऊपर बताया गया है तो आप को गीता - शरण में जाना पडेगा और जब आप निर्ग्रन्थ हो जायेंगे तब आप हर पल ॐ धुन में परम आनंदित स्वयं को पाएंगे और ॐ ही परमात्मा है [गीता-9।17,10।25,17।23 ] ।
=======ॐ=====

वह यह्शाश करा रहा है

आप को सोचना है -- न्यूटन , आइंस्टाइन , मैक्स प्लैंक , रमन और इस श्रेणी के वैज्ञानिक क्या खोज रहे थे और उनको क्या मिला ?
मैक्स प्लैंक अंत में आकर बोले---विज्ञान कभी भी प्रकृत को नही पकड़ सकता ...किस मनोस्थिति में उनको
ऐसा मह्शूश हुआ होगा ?
आप सोचिये की कौन सजीव है और कौन निर्जीव ।
आप सोचिये की परमाणु से गलैक्सी तक सभी गतिशील हैं फ़िर टाइम स्पेस में क्या स्थिर है ?
क्या आप जानते हैं की एक अमीबा जो लाखों की संख्या में एक सूई की नोक पर आ सकते हैं उनमें एक लाख
परमाणु होते , इतनें बारीक़ जीव को किसनें बनाया होगा ?
आकाश से हर पल अनगिनत भार रहित कण नयूत्रिनों जिनको सन्देश बाहक कण कहते हैं हमारे जिस्म में
प्रवेश करते हैं और फ़िर बाहर निकल आते हैं । ये आकाशीय कण किस से सूचनाएं लाते हैं और जिस्म में
किसको देते हैं , क्या हम जानते हैं ?
पृथ्वी की गति 1671 किलो मित्र प्रति घंटा है और हमारा सौर्य मंडल 273,000,000 साल में अपनें केन्द्र का एक चक्कर लगाता है । हम सब जब इतनी गति से चल रहें हैं आख़िर कौन यह सब कर रहा है और क्यों कर रहा है ?
Rig-veda says---One without vibration began to vibrate by its own energy and other han that there was nothing .
एक दिन विज्ञानं कहनें वाला है ------Universe is pulsating ।
कुछ बातें आप को यहाँ बताई गयी हैं , आप इन बातो को देखें , समझें और उसकी ओर नजर डालें जो यह
सब कर रहा है ।

=====ॐ======

सोच रहित सोच का क्या करूँ ?

सोच करना अति सरल है , मनुष्य सोच में पैदा होता है और सोच ही सोच में एक दिन शरीर भी छोड़ देता है।
क्या सोच शरीर के साथ समाप्त होजाती है ? इस सम्बन्ध में आप देखिये गीता सूत्र 8.6, 15.8 जो कहते हैं----
मनुष्य के शरीर को छोड़ कर जब आत्मा यात्रा पर निकलता है तब उसके साथ मन भी होता है । मन में
हमारे जीवन भर की सोचों का संग्रह होता है और यही सोचें आत्मा को विवश कर देती हैं नया शरीर धारण
करनें के लिए ।
सोच का प्रारंभ तो है लेकिन इनका अंत नही , एक सोच अनेक सोचों को पैदा करती है और यह क्रम चलता
रहता है---बुद्ध कहते हैं कामनाएं दुस्पुर होती हैं । कामनाएं कैसे पैदा होती हैं ? इस बात को समझना
जरुरी है । संसार में बिहर रही इन्द्रीओं की सूचनाओं के आधार पर मन- बुद्धि मिल कर सोच पैदा करते हैं ।
जब इन्द्रियाँ संसार से सूचनाएं एकत्रित करती हैं तब तो हम बेहोश रहते हैं और जब मन-बुद्धि सोच का
निर्माण करते हैं तब तक हमें होश नहीं आता पर जब सोच में फस जाते हैं तब कुछ सोच की किरण फूटती है
लेकिन तब तक काफ़ी देर हो गई होती है ।
सोच से बचना असंभव है लेकिन सोच को समझ कर सोच के खिचाव से बचना सरल है । जब इन्द्रियाँ
अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचे तब हमें उनको वहीं पकड़ना चाहिए या यदि ऐसा सम्भव नहीं तो मन में
उठते विचारों को पकड़ कर निर्विचार होना सम्भव है । सोच की समझ को गीता समत्व -योग की संज्ञा
देता है ।
अलेक्सजेंडर जब संसार जीतनें के लिए तैयार हुआ तन महाबीर की तरह नंगे बदन वाले एक सन्यासी से मिलनें
गया, वह सन्यासी था दायोग्नीज । सन्यासी दरिया किनारे रेत पर सो कर सुबह की धुप ले रहा था।
अलेक्सजेंडर बोला --मैं भी आप की तरह मस्ती चाहता हूँ । संन्यासी बोला--आजा ! नदी का किनारा
बहुत बड़ा है , कौन रोकता है तुझे ? अलेक्सजेंडर बोला--अभी नही , पहले संसार को जीत लूँ , फ़िर आउंगा।
दायोग्नीज बोला वह दिन कभी नहीं आनेवाला और ऐसा ही हुआ भी ।
जीवन अभी है और सोच आगे ले जाती है । सोच में डूबा ब्यक्ति अपनें वर्तमान से दूर रहनें के कारण
अतृप्त रहता है ।

ध्यान ह्रदय के द्वार को खोलता है

गीता श्लोक 13.24 कहता है ---- ध्यान में जब बुद्धि निर्विकार हो जाती है तब ह्रदय का कपाट खुलता है और
परमात्मा की आहट सुनाई पड़नें लगती है क्योंकि आत्मा- परमात्मा का केन्द्र ह्रदय है [ गीता सूत्र - 10.20, 13.17, 13.22, 15.7, 15.11, 15.15, 18.61 ] तथा जब ऐसा होता है तब देह की ऊर्जा लम्बवत ऊपर की ओर
उठनें लगती है एवं मन-बुद्धि संसार में रूचि नहीं रखते ।
विज्ञान एवं दर्शन में बुनियादी अन्तर है ; विज्ञान सोच के केन्द्र के रूप में मष्तिस्क को समझता है जहाँ से
भाव उठते हैं और दर्शन में भावों का केन्द्र ह्रदय है । अमेरिका के ह्रदय विशेषज्ञ कहते हैं ---अंग जब बदले
जाते हैं तब अंग देनें वाले का स्वभाव भी उस अंग के साथ लेनें वाले को मिल जाता है --यह शत प्रतिशत तो
नहीं होता लेकिन ऐसी बात शोध कर्ताओं को देखनें को मिली है , विशेष रूप से ह्रदय - बदलाव की
स्थितिओं में । गीता इस सम्बन्ध में कहता है ---तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण हर इन्शान
में होता है , गुणों से स्वभाव बनता है और स्वभाव से भाव उठते हैं तथा भावानुकूल कर्म होता है ।
गुनरहस्य वैज्ञानिकों को मदत कर सकता है लेकिन वैज्ञानिक गीता को कैसे अपनाए ? गीता की स्पष्टता को
देखिये --गीता कहता है ...गुन कर्म-करता हैं और करता भाव अंहकार का छाया है [गीता-3।27] । क्या आप
इस से अधिक स्पष्ट बात कहीं और पा सकते हैं ? अब आप गीता का एक और सूत्र देखिये [ गीता-6।27] ,
गीता कहता है ...राजस गुन पभु के मार्ग में बहुत बड़ा अवरोध है । गीता के ऊपर बताये दो सूत्रों को जो अपना
लिया वह हो गया साक्षी-द्रष्टा और की खोज स्वतः समात हो जायेगी । गीता - सूत्र 14.19,14.23 कहते हैं - गुणों
को करता समझनें वाला द्रष्टा एवं साक्षी है ।
गीता में उलझिए नहीं गीता के कुछ सूत्रों को अपनाइए जो आप को भोग के बंधनों को स्पष्ट करके आप की दिशा
बदल देंगे और आप संसार के आयाम से प्रभु के आयाम में पहुँच सकते हैं ।
======ॐ=========

परमात्मा कोई खोज का बिषय नहीं

जिसको भौरों की गुंजन एवं समुद्र की लहरों में ॐ सुनाई पड़ता हो-------
जो हर पल प्रकृत को मुस्कुराता देखता हो -------
जिसको हिमालय की शून्यता में परम शून्यता सुनाई पड़ती हो-------
जिसको गंगा की लहरों में गायत्री की धुन मिलती हो ------
जिसको यह संसार एक रंग शाला सा दीखता हो -------
जिसको कोई पराया न दीखता हो ------
वह परमात्मा को खोजता नहीं स्वयं परमात्मातुल्य होता है ।

आज परमात्मा की खोज का बहुत बड़ा ब्यापार चल रहा है; कोई स्वर्ग का रास्ता दिखा रहा है तो कोई स्वर्ग का टिकट बेच रहा है लेकिन ज़रा सोचना --खोज किसकी संभव हो सकती है ?खोज उसकी संभव है
जो खो गया हो
जिसके रूप-रंग, ध्वनि , आकार-प्रकार एवं गंध तथा संवेदना का कोई अनुमान हो।
क्या हमें परमात्मा को पहचाननें वाले तत्वों का पता है ? सीधा उत्तर है--नहीं फ़िर हम कैसे उसे खोज रहें हैं ?
क्या पता परमात्मा हमारे ही घर में हो ?
क्या पता परमात्मा हमारे साथ-साथ रहता हो ?
क्या पता हम पमात्मा से परमात्मा में हों ?
क्या कभीं हम इन बातों पर सोचे हैं ? यदि उत्तर है-नहीं तो आप अपनी बाहर की खोज के रुख को बदलिए
अंदर की ओर और खोजिये अपनें केन्द्र को । जिस दिन एवं जिस घड़ी आप अपनें केन्द्र पर पहुंचेंगे उस घड़ी आप के अंदर इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा का रूपांतरण हो जाएगा और तब जो दिखेगा वह होगा -------
परमात्मा ।
परमात्मा मन-बुद्धि की शून्यता का दूसरा नाम है और इसकी अनुभूति अब्याक्तातीत होती है।
भाषा बुद्धि की उपज है और भाव ह्रदय में बहती लहरें हैं जो भावातीत से उठती हैं --भावों के माध्यम से भावातीत
की अनुभूति ही परमात्मा है।

======ॐ====

सत पुरूष क्यों सताए जाते हैं?

गीता-श्लोक 4 . 7 - 4 . 8 कहते हैं-------
धर्म के उपर से अधर्म की चादर उठानें के लिए एवं साधू-पुरुषों की रक्षा करनें के लिए परमात्मा निराकार
से साकार रूप में प्रकट होता है।
मीरा को मथुरा में रूकनें नहीं दिया गया, सुकरात को जहर दिया गया, महाबीर के कानों में कीलें ठोकी गयी, बुद्ध के उपर जूते फेके गए, जेसस को शूली पर चढाया गया, गलीलियो को घर में कैद किया गया, श्री राम की सीता का हरण हुआ और श्री कृष्ण को ब्रज-भूमि छोड़ कर द्वारका जाना पडा .....आखिर यह सब किसनें और क्यों किया? यह सब करनें वाले कोई और न थे , हम - आप ही थे।
लोगोंको साधू पुरुषों से क्या परेशानी है? क्यों लोग उनको देखना नहीं चाहते? साधू पुरूष तो किसी को
कुछ नहीं कहते।
सत पुरूष राज धर्मी पदार्थ की तरह होते हैं जिनके रोम-रोम से चेतन मय विकिरण होता रहता है जो लोगों के अंदर पहुँच कर उन्हें बेचैन करता है।
भोग एवं अंहकार से सम्मोहित लोग सत के विकिरण को सह नहीं पाते उन्हें बेचैनी होती है और यह बेचैनी उनको विवश करती है - सत पुरुषों को पेशान करनें के लिए ।
सत पुरूष के पैर से पैर मिलाकर चलना कठिन काम है लेकिन सत पुरूष के न रहनें पर उनको पूजना अति आसान होता है ।
सत की राह संसार से लम्बवत यात्रा है जो भोग के गुरुत्वाकर्षण के बिपरीत की यात्रा है अतः इस पर चलना कठिन है और संसार की यात्रा समानांतर यात्रा है जो अति आसान यात्रा है ।
समानांतर यात्रा को लम्बवत यात्रा में बदलना ही साधना है ।

======ॐ========

गीता श्लोक - 2.11

गीता श्लोक 2.11 में परम श्री कृष्ण कहते हैं-------
तूं शोक करनें लायक लोगों के लिए शोक नहीं करता और प्रज्ञावान की तरह बांते करता है ।
जो हैं तथा जो गुजर गएँ हैं दोनों पर पंडित लोग नहीं सोचते ।
गीता श्लोक 2.2 में परम श्री कृष्ण कहते हैं.............................
असमय में तुझे मोह कैसे हो गया है ? अब यहाँ देखना होगा की गीता श्लोक 2.4 से गीता श्लोक 2.10 तक में अर्जुन ऎसी कौन सी बात कहते हैं जिसके आधार पर परम श्री कृष्ण अर्जुन को श्लोक 2.11 में प्रज्ञावान एवं पंडित शब्दों से संबोधित करते हैं ?
यहाँ अर्जुन कहते हैं-----
मैं भीष्म पितामह एवं द्रोणाचार्य के साथ युद्ध कैसे कर पाउँगा ?
गुरुजनों की ह्त्या करनें से तो उत्तम है भीख मांग कर गुरारा करना ।
मैं तो यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ की युद्ध करना उत्तम होगा या न करना उत्तम होगा ।
धर्म-बिषयों से मेरा मन मोहित ही गया है [ गीता श्लोक 2।7 ] , मैं आप का शिष्य हूँ तथा आप की शरण में हूँ, आप कृपया मुझे उचित मार्ग दिखाएँ ।
यहाँ आप नें अर्जुन की बातों को देखा इन बातों में ऐसी कोई बात नहीं है जिस के आधार पर उनको प्रज्ञावान या पंडित कहा जा सके फ़िर श्री कृष्ण क्यों ऐसा कहते हैं ?
अर्जुन का गीता में पहला प्रश्न गीता श्लोक 2.54 के माध्यम से जो है उसमें प्रज्ञावान की पहचान पूछी गयी है ,
यदि अर्जुन प्रज्ञावान होते तो-------
१- वे मोह में क्यों होते ?
२- वे प्रज्ञावान की पहचान क्यों पूछते ?
प्रज्ञावान के लिए आप गीता के श्लोक 2.55 से 2.72 तक को देख सकते हैं , ब्रह्मण , पंडित शब्दों को समझनें के लिए आप देखिये गीता श्लोक 2.46 एवं 18।42 ।
प्रज्ञावान , स्थिर बुद्धि , पंडित , ब्राह्मण , समभाव - ये सभी शब्द एक ब्यक्ति के संबोधन हैं जिसका केन्द्र
परमात्मा होता है ।
मन-योग , बुद्धि- योग , समत्व - योग तथा सम भाव योग वह योग है जिसके माध्यम से इन्द्रीओं से बुद्धि
तक की ऊर्जा को विकार रहित किया जाता है ।
Prof. Einstein कहते हैं-------
जिस बुद्धि से प्रश्न उठता है उस बुद्धि में उस प्रश्न का हल नही होता ।
गीता कहता है ----------
स्थिर बुद्धि प्रश्न रहित होती है और अस्थिर बुद्धि प्रश्न एवं संदेह से भरी होती है , क्या आप को इन दो बातों में कोई अंतर नजर आता है ?अर्जुन मोह में डूब चुके हैं , यह बात श्री कृष्ण को अच्छी तरह से मालूम है । श्री कृष्ण अर्जुन को मोह मुक्त करनें के लिए गीता में नाना प्रकार का प्रयोग करते हैं उनमें से एक प्रयोग गीता श्लोक 2.11 भी है ।
गीता सांख्य - योग की खान है इसमें आप जितनी गहराई में पहुंचेंगे आप को उतना ही अधिक रस मिलेगा ।
जो भाग गया वह भाग गया जो अंदर गया वह पा लिया।

=====ॐ===========

क्या तेरा और क्या मेरा

जहाँ दो हैं वहाँ संदेह होगा ही । संदेह रहित मन-बुद्धि समत्व - योगी की पहचान है । जिस बुद्धि से प्रश्न उठता है उस बुद्धि में उस प्रश्न का उत्तर नहीं होता--यह बात बीसवी शताब्दी का महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन कहते हैं ।
अब हमें - आप को सोचना चाहिए की हमलोगों की स्थिति कैसी है ?
हमलोग अकेले में रह नहीं सकते और दो के साथ सत की पहचान संभव नहीं फ़िर ऐसे में हमें क्या करना चाहिए ?
जब तक भक्त और भगवान् आमने - सामनें होते हैं तब तक परा भक्ति का द्वार नहीं खुलता और जब तक ऐसा नहीं होता परमात्मा की अनुभूति नहीं मिलती , चाहे हम कुछ भी युक्ति क्यों न करलें लेकिन जब तक हम स्व पर केंद्रित नहीं होते तब तक परमात्मा हमसे दूर ही रहेगा।
तूं स्व से नहीं मिलने देता और मैं तूं तक पहुंचनें नही देता फ़िर ऐसे में क्या करें ?
स्व से मैं[अंहकार] को अलग करना चाहिए और ऐसा करनें के लिए इन्द्रीओं से मन तक की साधना करनी जरुरी है।
गीता कहता है ---गुन कर्म करता हैं और करता भाव अंहकार की छाया है अतः इस छाया से बचनें का नाम ही ममन साधना है।
इन्द्रीओं से मैत्री , मनन की समझ और च्वायस लेस अवेरनेस [choiceless awareness ] की स्थिति का नाम ही
समत्व - योग है।
क्या आप समत्व-योगी बनना चाहते हैं ?

=======ॐ======

हम अतृप्त ही रहेंगे क्या ?

छोटा बच्चा निर्विकार प्यार की मूरत होता है , खोजनें पर शायद ही कोई ऐसा मिले जो एक अबोध छोटे बच्चे से सम्मोहित न होता हो ।

बच्चे के कण-कण से प्यार की किरणें निकलती रहती हैं जो एक भार रहित नयूत्रिनों [neutrino ] कण की तरह हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं और बिना संकेत देये हमारे अंदर की निर्विकार ऊर्जा के माध्यम को गतिशील कर देती हैं । हमारा मन-बुद्धि तंत्र सक्रीय होनें में कुछ समय लगता है लेकिन ये कण उसके पहले ही अपना प्रभाव डाल चुके होते हैं ।
मनुष्य अपनें को तृप्त करनें के लिए घर बनाता है, परिवार बनाता है और मन्दिर भी बनाता है लेकिन इतना करनें के बाद भी क्या तृप्त होता है ? ----अगर तृप्त नही है तो जरुर कोई बुनियादी कारण होगा । मनुष्य जिस प्यार के लिए परिवार्बनाता है वह प्यार नहीं वासना होता है , जो घर बनाता है उसका कारण भय होता है --वह सुरक्षा के लिए घर बनाता है और मन्दिर निर्माण के पिहे भी भक्ति-भाव न हो कर भय ही होता है ।
गुणों के प्रभाव में जो भी कर्म होगा उसकी निष्पत्ति अतृप्त ही होगी क्यों की ऐसे कर्म भोग कर्म होते हैं जिनके सुख में दुःख का बिज होता है । भोग कर्म के सुख-दुःख धुप-छाव की तरह आते - जाते रहते हैं अतः ऐसी स्थिति में त्रिप्तता का आनंद कैसे मिल सकता है ?
बचपन का समय प्यार से प्यार में गुजरता है और प्यार की मूल त्रिप्तता है , बचपन के बाद युवा अवस्था आती है जिसकी बुनियाद बासना होती है , बासना में मन-बुद्धि तंत्र अस्थिर होते है अतः ऐसी स्थिति में त्रिप्तता आ कैसे सकती है ?
तिप्तता का आना तब संभव होता है जब इन्द्रीओं से बुद्धि तक की ऊर्जा निर्विकार हो और ऐसा तब संभव है जब स्व के प्रति होश हो और स्व से जो होरहा हो उसके प्रति होश हो । गीता का सांख्य - योग की साधना से समत्व भाव का उदय होता है जिसके माध्यम से त्रिप्तता आती है न की भौतिक साधनों को इकट्ठा करनें से ।
साधन साद्य नहीं हैं साध्य के माध्यम हो सकते हैं ।
======ॐ=========

कृष्ण की बासुरी तो बज रही है-----

कृष्ण की बासुरी तो आज भी बज रही है लेकिन सुननेंवाला कौन है?
जो कोशिश किया वह सूना ही नही उस धुन से निकल न पाया।
कृष्ण की बासुरी सुनी राधा और पंद्रहवी शताब्दी में मीरा और दोनों उसके बाहर निकल न पायी।
जैसे बासुरी बजाना सिखाना पड़ता है वैसे बासुरी सुननें की भी कला सीखनीपड़ती है।
साकार कृष्ण अपने बासुरीके माध्यम से असीमित ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं की संबेदनाओं से संपर्क स्थापित करते थे , बासुरी की धुन पूरे ब्रह्माण्ड में संचार - माध्यम का काम करती थी।
कृष्ण की बासुरी को आप सुन सकते हैं , उसे सुननें की लिए कुछ माध्यम उपलब्ध हैं जैसे-----
१- कोई संगीत के माध्यम से पकडनें की कोशीश करता है।
२- कोई-कोई नृत्य को अपना कर इस धुन को पकड़ना चाहता है ।
३- कोई-कोई गायत्री जाप के माध्यम से पकडनें की कोशिश करता है।
४- कुछ लोग वेद मंत्रो में छिपे ॐ का सहारा लेते हैं ।
५- और ध्यान जिनका माध्यम है उनको ध्यान की शून्यता में यह धुन सुनाई पड़ती है।
बीसवी शताब्दी के मध्य में Arrr-eee-oomm मन्त्र के माध्यम से एडगर कायसी हजारो ला इलाज लोगों को इस मन्त्र के माध्यम से ठीक किया था क्या यह मन्त्र हरी ॐ नही है? कायसी को अनजानें में कृष्ण के बासुरी की धुन हरी ॐ के रूप में मिली।
569-475 BCE - Pythagorus का कहना था की सभी ग्रहों की अपनी - अपनी धुनें होती हैं जबकि उस समय तक ब्रह्माण्ड के बारे में कुछ भी पता न था , आज 21 वीं शताब्दी में आकर वैज्ञानिक पृथ्वी की धुन को मापनें में कामयाब हो पायें हैं --क्या पैथागोरस को ग्रहों में गूंजती कृष्ण के बासुरी की धुन नही सुनाई पडी ?
संत जोसफ जब यह बोले की सृष्टि की रचना का आधार शब्द है तो क्या उनको अनजानें में कृष्ण के बासुरी की धुन नही सुनाई पडी?
दिन में विचार जगनें नही देते और रात में इन विचारों के स्वप्न सोने नही देते फ़िर ऐसे में कृष्ण के बासुरी की धुन कैसे सुनाई पड़ सकती है?
कृष्ण के बासुरी की गूंजती धुन तब सुनी जा सकती है जब इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा विकार रहित हो जाती है , मन शांत होजाता है और बुद्धि धुन को पकडनें पर स्थिर हो जाती है --------
क्या आप इसके लिए तैयार होना चाहते हैं ? यदि हाँ तो उठाइये गीता , इससे प्यारा और कोई माध्यम नही है।
सोच आप को आगे बढ़नें नही देगी , इस काम के लियेआप को गीता मय होना पडेगा ।
======ॐ=======

गीता सार

गीता में कुल 700 श्लोक हैं , 556 श्लोक श्रीकृष्ण के हैं जिनमें से 101 श्लोक परमात्मा को ब्यक्त करते हैं और 23 श्लोक आत्मा से सम्बंधित हैं। अर्जुन अपनें 101 श्लोको के माध्यम से 16 प्रश्न करते हैं और अपनी सोच स्पष्ट करते हैं। संजय जिनके कारण गीता आज हमलोगों को उपलब्ध है, अपनें विचार 40 श्लोकों के माध्यम से ब्यक्त किया हैतथा धृत राष्ट्र जी का मात्र एक श्लोक है।
साधना की दृष्टि से श्री कृष्ण सांख्य-योगी हैं, अर्जुन हमलोगों की तरह एक भोगी ब्यक्ति की भूमिका निभा रहे हैं,धृत राष्ट्र जी एक परम श्रोता हैं और संजयजी परा भक्त हैं जिनको साकार कृष्ण में निराकार कृष्ण दिखते रहते हैं।
यदि आप गीता के आधार पर सांख्य योग की साधना में उतरना चाहते हैं तो आप को गीता के कृष्ण पर अपनी पूरी ऊर्जा केंद्रित करनी पड़ेगी, यदि आप भोग से समाधि तक की यात्रा पर चलना चाहते हैं तो आप को गीता के अर्जुन पर ध्यान करना पडेगा, यदि आप को श्रोतापन की हवा खानी हैं तो आप अपनें ध्यान का केन्द्र धृत राष्ट्र को बनाएं और यदि परा-भक्ति का आनंद उठाना चाहते हैं तो आप को संजय को अपनाना पडेगा।
बुद्ध एवं महाबीर के समय अबसे 2500 वर्ष पूर्व श्रोता अधिक थे लेकिन वर्तमान में न के बराबर हैं क्योंकि यह युग उन लोगों का है जिनकी बुद्धि संदेह से भरी है। आज का युग विज्ञानं का
युग है और संदेह विज्ञानं की बुनियाद है। जितना गहरा संदेह होगा उतना गहरा विज्ञान निकलेगा। संदेह से विज्ञान निकलता है और श्रद्घा से परमात्मा की खुशबू मिलती है।
गीता सांख्य योग की गणित है , परा-भक्ति का द्वार है और भोग से भगवान तक का मार्ग है अतः आप गीता के श्लोकों को याद करके अपनें अंहकार को और पैना न करें , गीता के श्लोकों को एकत्रित करके ध्यान बिधि बनाएं और उस मार्ग पर चलें तब गीता आपकी उंगली पकड़ कर उस पार तक की यात्रा करा सकता है।
गीता कहता है मैं घर नहीं हूँ जिमें तुम बसना चाहते हो , मैं तो नाव हूँ जो हर पल तुमको उस पार ले जानें को तैयार है , तुम आवो तो सही।
गीता का मूल मन्त्र है समत्व-योग अर्थात आसक्ति रहित कर्म का होना। आसक्ति रहित कर्म बैराग्य में पहुंचाता है तथा वह भाव पैदा करता है जिसमें कर्म अकर्म दिखता है और अकर्म कर्म दिखता है । गीता राग से वैराग ,बैराग में ज्ञान तथा ज्ञान के माध्यम से आत्मा-परमात्मा का बोध कराता है ।
========ॐ========

योग समीकरण - 1

ज्ञान इन्द्रिओंकी समझ शरीर एवं मन के प्रति होश बनाना कर्म-योग की पहली सीढी है। शरीर में पाँच कर्म-इन्द्रियाँ एवं पाँच ज्ञान - इन्द्रियाँ मुख्यतत्व हैं। जहाँ दस इन्दियाँ जुड़ती हैं उस स्थान को मन कहते हैं। ज्ञान इन्द्रियाँ संसार से सूचनाएं एकत्रित करती हैं, मन उनपर मनन करता है और मन के आदेश पर कर्म-इन्द्रियाँ कर्म करती हैं।
आँख, कान, नाक, जिह्वा एवं त्वचा से क्रमशः दृश्य[रूप-रंग], ध्वनि, गंध, रस, तथा स्पर्श -संवेदनाओं के माध्यम से मनुष्य अपनें को दूसरों से जोड़ता है। दूसरों का आकर्षण मन में मनन पैदा करता है। मनन से आसक्ति, आसक्ति से कामना, कामना के साथ संकल्प और संकल्प के साथ विकल्पों का जन्म होता है। संकल्प तक तो मन-बुद्धि की ऊर्जा सामान्य रहती है लेकिन विकल्पों के साथ इसकी आवृति बदल जाती है और इसमें भय की ऊर्जा आजाती है। संकल्प तक मन-बुद्धि की ऊर्जा में राजस गुन होता है और जब विकल्प उठानें लगते हैं तब इस ऊर्जा में तामस गुन आनें लगता है , फलस्वरूप यह ऊर्जा दो में बिभक्त हो जानें से कमजोर पड़ जाती है। जैसे- जैसे मन-बुद्धि में भ्रम बढता है राजस गुन कमजोर पड़नें लगता है और तामस गुन उपर उठनें लगता है। भ्रमित मन-बुद्धि में कभीं-कभीं कामना टूट भी जाती है और जब ऐसा होता है तब क्रोध पैदा होता है जो पाप का कारन होता है।
भ्रमित मन-बुद्धि में किया गया कर्म कभीं भी पूर्ण तृप्त नहीं करता और मनुष्य एक ही भोग को बार-बार भोगता रहता है--यह दशा एक पूर्ण भोगी ब्यक्ति की है। एक भोग को भोगी-योगी , दोनों भोगते हैं; योगी के लिए एक बार का भोग उसे तृप्त कर देता है और उस भोग की तरफ़ उसकी पीठ हो जाती है पर भोगी जितना भोगता है उतना ही वह और अतृप्त होता जाता है। भोगी के भोग से उसको भोग के समय सुख मिलता है लेकिन उस सुख में दुःख का बीज होता है जबकि योगी के भोग से उसको सम भाव की स्थिति मिलती है। भोगी का भोग राजस एवं तामस गुणों केप्रभाव में घाटित होता है जिसमे कामना या भय होता है पर योगी के भोग में गुणों का प्रभाव नहीं होता।
योगी को भोग में उतरना पड़ता है क्योंकि प्रकृति उसे उतारती है अपनें संतुलन को बनाए रखनें के लिए लेकिन भोगी गुणों के प्रभाव में भोग में उतरता है ।
योगी चूंकि भावातीत स्थिति में भोग में होता है अतः उसकी पूरी ऊर्जा उस भोग में लगती है और वह
तृप्त हो कर उसके रहस्य को समझ जाता है जब की भोगी भोग में बेसोश होता है उसको कुछ पता नहीं होता की वह क्या कर रहा है?
होश में भोग साधना का एक अंश है और गुणों के प्रभाव का भोग पशुवत - भोग है।

=====ॐ=====

आसुरी शक्तियां पंख फैला रही हैं

आज विज्ञानं का युग है , सभी साधन उपलब्ध हैं लेकिन क्या ये साधन मनुष्य को सुख दे पा रहे हैं?
आज अनेक टी वी चैनेल हैं सभी रात-दिन लगातार अपनें- अपनें कार्य क्रम दे रहे है , इन कार्य क्रमों को
आपभी देखते ही होंगे--- आप को कैसा लगता है?
जब कोई सरकार बनती है तब सपथ समारोह तक सभी चैनेल्स उस सरकार के गुणों का पूल बाधती हैं लेकिन अगले दिन से उसे समाप्त करनें में जुट जाती हैं।
भारत से दूर यदि कोई भारतीय इन चैनेल्स के कार्य क्रमों को देखे तो वह समझेगा की हमारे देश में जो कुछ भी हो रहा है सब उलटा हो रहा है।
कोई ऐसा कार्य क्रम शायद ही कभी मिले जिस से देश के लोगों में प्यार-मुहब्बत होनें का भाव दिखता हो।
लोगों में भय फैलानें का पूरा विज्ञानं का प्रदर्शन किया जाता है, लोग बिचारे पहले से भयभीत हैं और जब इन कार्य क्रमों को देखते हैं तो उनकी दशा और गंभीर हो जाती है।
भोग का अति आधुनिक विज्ञान आज बच्चों को चैनलों के माध्यम से मिल रहा है।
कभी-कभी योगसे सम्बंधित कार्य क्रम भी मिलते हैं लेकिन उनका भी काम है , भोग में सहयोग देनें का। आज योग को भोग का माध्यम बना दिया गया है जबकि भोग योग का माध्यम है।
कामना पूर्ति के इतनें सरल - आसान तरीके बताये जाते हैं जिनको देख कर रोना आता है।
परीक्षा में पूरक परिणाम से उत्तीर्ण होनें के लिए मन्त्र बताये जाते हैं ,यह नही बताया जाता की मेहनत करो परिणाम स्वतः अच्छा मिलेगा।
आज मूर्तियाँ बनानें की दुकानें हैं , हर गलीमें मन्दिर हैं और मंदिरों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ रही है , क्यों, क्या लोग वास्तव में परमात्मा से जुड़ रहे है? नही, भोग प्राप्ति के लिए लोग मन्दिर बनवा रहे हैं --है न मजे की बात।
त्रेता युग में सोनें की लंका थी रावण के पास , राम के पास नही थी, त्रेता एवं द्वापर में तलवार धारियों के पास शक्ति थी और----------
आज --------?
एक चीर हरण से महा भारतयुद्ध हुआ और आज हजारों चीर हरण रोजाना हो रहे हैं।
त्रेता युग के राक्षसों तथा द्वापर के असुरों को देखिये और फ़िर आज के शक्तिवान लोगों पर एक नजर डालिए,
क्या आप कोकोई फरक नज़र आता है?
कहते हैं की चार युग होते हैं लेकिन मैं कहता हूँ की पाँच युग होते हैं और पांचवा युग है भोग युग जो इस समय चल रहा है ।
आप एक नए युग में हैं इस युग के बाद और कोई युग नही आनें वाला अतः ज़रा होश बना कर जीवन की
नौका को चलायियेगा।
====ॐ=========

भारत क्यों पिछड़ गया ?

भारत वैदिक युग से [रिग-वेद१७००-१००० ईशा पूर्व ] से चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य [सन ५०० ईशा बाद ] तक विश्व में वैज्ञानिक विचारों को दिया लेकिन बाद में क्या होगया ?
वैदिक गणित के रूप में सुल्बा-सूत्रों को विश्व के सामनें 800-200 BCE में दिया।
जैन-गणित उपलब्ध था 400 BCE में ।
200 BCE में वैशेशिका के माध्यम से कण-विज्ञानं दिया गया ।
200 BCE में पतंजलि अपनें योग-सूत्रों में बताया- मनुष्य के शरीर में हल्का विद्युत - क्षेत्र है जो की आधुनिक
विज्ञानं का एक अहम् सूत्र है।
पाणिनि जी 500 BCE में कुछ अति असाधारण गणितीय सूत्रों को दिया ।
आर्यभट 500 CE में अपने आर्यभाटिया में कोस्मोलोगिकल मॉडल के साथ कहा की पृथ्वी अपने केंद्र के चारों
तरफ घुमती है । आर्यभट गणित में पाईको स्पष्ट किया - अर्थात he explained the relation between circumference and the diameter of a circle as 3.1416 and said that pai is an irrational number. This concept was proved in1761 by Lambart.
आर्य भट्ट 23 वर्ष की उम्र में कई गणतीय बातें बतायी ।
सन 830 के आस-पास इनकी किताब को अरबी में अनुबाद किया गया जो धीरे-धीरे अरब से पश्चिम में पहुँच
गयी।
चन्द्रगुप्त मौर्य [322-298 BCE] में अर्थ शास्त्र विश्व का पहला अर्थ शास्त्र था और उस समय मुद्रा का चलन हुआ ।
वैशेशिका [200 BCE ] में एटम के सम्बन्ध में आइन्ताइन-बोहर सिद्धांत दिया गया है ।
यह सब होते हुए भी भारत क्यों पिछड़ गया ?
आप को सोचना चाहिए ।
=====ॐ=======

भारत कब भटक गया ?

ईशा बाद पहली शताब्दी में यूनान से एक खोजी भारत आए और वापिस जा कर उन्होंनें भारत के सम्बन्ध में यह बात लिखी .................

In India I found a race of mortals living upon the earth , but not adhering
to it.........possessing everything but possessed by nothing------Apolloneous tyanaeus.

यह समय था महाबीर एवं बुद्ध के प्रभाव का । महाबीर यूनान के थेल्स से लगभग 25 वर्ष छोटे थे और बुध की जब मृत्यु हुयी तब सुकरात 16-17 वर्ष के थे । पश्चिम में थेल्स से अरिस्तोत्ल [from Thales to Aristotle ] तक जो विचारधारा बही उस से आधुनिक विज्ञानं का जन्म हुआ । भारत में महाबीर-बुद्ध के बाद ऐसा न हो पाया। पश्चिम में दर्शन से विज्ञानं संघर्ष करके उपर आया जैसे एक बीज से तना धरतीको फाड़ कर उपर आता है पर भारत में ऐसा न हो पाया । गैलिलियो जब बोले--पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ़ चक्कर काटती है , धर्म गुरुओं से उनको अनेक मुशीबतें मिली, उनको घर में नजर बंद कर दिया गया । सुकरात को जहर दिया गया। पश्चिम में सुकरात को नास्तिक कहा गया और भारत में महाबीर - बुद्ध को नास्तिक की संज्ञा दी गई ।

गैलिलियो की मृत्यु 1642 में हुयी और न्यूटन का जन्म हुआ । संन 1879 में मैक्सवेल की मृत्यु हुई और आइंस्टाइन का जन्म हुआ --इस तरह पश्चिम में विज्ञान की हवा चलती रही लेकिन भारत में ऐसा कुछ न हो पाया ।

Max Planck, Erwin Schrodinger, Prof. Einstein सभी नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक गीता तथा उपनिषद् प्रेमी थे ।

भारत में जब घर-घर में तुलसी के रामायण का जोर था उस समय केप्लर , टैको ब्राह्मे तथा गैलिलियो आकाश में तारों को देख कर गणित की रचना कर रहे थे ।

भारत में 10 c ce के बाद भक्ति वाद की ऐसी हवा बही की लोग सब कुछ भूल गए और भारत गुलाम होता चलागया - गजनी से ईस्ट इंडिया कम्पनी तक भारत गुलाम बना रहा। अंगरेजों के समय कुछ लोग जैसे रमन, सत्यान्द्रनाथ बोस , रामानुजन तथा जगदीश चन्द्र बोस आए लेकिन एक हवा न चल पायी .....अब 21 वीं शताब्दी में भारत के नौजवानों से काफ़ी उम्मीदें हैं ।

=====ॐ=======

ध्यान परमात्मा का द्वार है

मनुष्य के पास तन,मन,बुद्धि और ह्रदय चार रास्ते हैं जिनसे परमात्मा से जुडा जा सकता है ।
तन ध्यान में इन्द्रीओं से मैत्री स्थापित की जाती है ।
मन- बुद्धि ध्यान में विचारों को समझना होता है ।
तन , मन-बुद्धि जब नियोजित हो जाते हैं तब..........
ह्रदय का द्वार खुलता है ।
जब ऐसा होता है तब........
अंहकार पिघलनेंलगता है और प्रीति की धारा ह्रदय में बहनें लगती है ।
अंहकार और प्रीति एक साथ नहीं रह सकते ।
अंहकार अपरा प्रकृत के आठ तत्वों में से एक है जो इन्द्रियों से ह्रदय साधना तक किसी न किसी रूप में रहता है ।
अंहकार की गुरुत्वा शक्ति इतनी मजबूत होती है की यह वैराग्यावस्था तक भोग में वापिस खीच सकता है
अंहकार तिरोहित होनें पर तेरा-मेरा का भाव नहीं उठाता ।
ह्रदय से सहस्त्रार तक की साधना में अंहकार सूक्ष्म रूप में होता है ।
सहस्त्रार चक्र की पकड़ जब समाप्त होती है तब वह योगी गुनातीत योगी होता है जो----------
हर पल परमात्मा से परमात्मा में अपनें को पाता है और प्रशन्न रहता है ।
ध्यान रूपांतरण का माध्यम है इसको मनोरंजन का बिषय न समझें ।
====ॐ=======

दुःख का कारन वह है

हम स्वयं को कितना जानते हैं या जाननें की कोशिश करते हैं ?
हम उसको भी जानते तो नही हैं पर जाननें की कोशिश जरुर करते रहते हैं ।
हम कभी यह नही समझाना चाहते की हमारे दुःख का कारन मैं स्वयं हूँ , न की कोई और ।
जिस दिन यह पता चलनें लगता है की दुःख का कारन मैं हूँ उस दिन से हम रूपांतरित होनें लगते हैं ,ध्यान की किरण निकलनें लगाती है , हमारी दृष्टि बदलनें लगाती है , सभी ग्यानेंद्रिओं से मिलनें मिलनें वाली सूचनाओं से सुख की किरण निकलती दिखाई देनें लगतीहै और वह जो हमारे दुःख का कारण था वह सुख का माध्यम बन जाता है ।
बुद्ध कहते हैं .....हम दूसरे की गलती पर स्वयं को दंड देते हैं , आप एक काम करें , जब कभी दुखी हों तो दुःख के कारन को तलाशें , दुःख का कारण आप नही होंगे और कोई होगा, आप हो भी कैसे सकते हैं ? ऐसा क्यों होता है ?
मन का स्वाभाव है परिधि पर चक्कर काटना वह स्वयं कभीं भी केन्द्र पर नही रहता । परिधि है संसार जो बिषयों का माध्यम है तथा जो मन में भ्रम पैदा करता है । भ्रमीत मन तब तक शांत नहीं हो सकता जब तक वह परिधि पर होगा । मन की परिधि का केन्द्र है जीवात्मा जहाँ आकर मन निर्मल हो जाता है , भ्रम रहित हो जाता है और शांत हो जाता है ।
बिषय से जीवात्मा पर मन को ले आनें का प्रयाश ध्यान विधियां है और जब प्रयाश सफल होता है तब सत्य क्या है? का पता चल जाता है - हम कुछ और हो चुके होते हैं । मन का निवाश जब जीवात्मा बन जाता है तब वैराग्य मिलता है , वैराग्य में ज्ञान मिलता है जो ब्यक्त नही हो सकता । ज्ञान वह माध्यम है जिससे परमात्मा की अनुभूति होती है ।
अपने मन को बाहर से अंदर की ओर घुमाओ --यह तब सम्भव है जब मन का पीछा करनें की आदत पड़ जाए ।
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गीता से मैत्री स्थापित करो

आप जरा इन बातों पर सोचें
१- लोग मन्दिर जाते तो हैं लेकिन उनमे प्रेम की लहर क्यों नही दिखती ?
२- मन्दिर से वापिश आनें वाले ऐसे दिखते हैं जैसे जेल से आरहें हों ,क्यों ?
३- भय में डूबे लोग मन्दिर जाते ही क्यो हैं ?
४- क्या एक भयभीत ब्यक्ति पत्थर की मूर्ती में परमात्मा को देख सकता है ?
५- गीता के नामपर लोग क्यों सिकुड़ जाते हैं ?
६- हिदू लोग गीताकोअपनें घर में क्यो रखते हैं ?
७- गीता पड़नें वाले भी कम नहीं पर सभी गीता से भयभीत क्यों हैं ?
८- गीता के नाम पर लोग महाभारत की कहानियाँ क्यों सुनाते हैं ?
९- गीता कर्म के माध्यम से ज्ञान देता है लेकिन क्या भय के साथ ज्ञान पाया जा सकता है ?
१०- गीता अर्जुन को भय मुक्त करता है और हम गीता से डरते हैं , यह बिरोधाभास क्यों ?
११- गीता प्रेम की उर्जा ह्रदय में भरता है लेकिन इस बात को हम नहीं समझना चाहते , क्यों ?
१२- गीता भाव से भावातीत की यात्रा कराना चाहता है लेकिन हम भाव को छोड़ना नहीं चाहते , क्यों ?
यहाँ आप के लिए १२ बातों को दिया जा रहा है जो आप में गीता की उर्जा का संचार करनें की कोशिश करेंगे ।
=====ॐ=======

गंगा सिसक रही है

गंगा को मनुष्य पृथ्वी पर क्यों लाया ?
गंगा को कौन प्रदूषित कर रहा है ? पशु , पंक्षी या कोई और जीव या मनुष्य स्वयं ।
गंगा को लानेवाला अपनी कामना पूर्ति के लिए गंगा का प्रयोग किया और आज हम-आप भी वही काम कर रहे हैं,क्या गंगा कोदेनेवाला यह नही समझ सका की इसका प्रयोग कैसे किया जानें वाला है ?
गंगा में अनेक प्रकार के जीव निवास करते हैं , गंगा को बरबाद नही करते , वे गंगा को निर्मल करनें में
दिन-रात जुटे हुए हैं, पर मनुष्य क्या कर रहा है ?
हमलोग गंगा में अपनों की अस्थियाँ डालते हैं और सोचते हैं की ऐसा करनें से उनको मुक्ति मिल जायेगी जो जीवन भर गंगा को प्रदूषित करते रहे हैं , क्या गंगा उनको नही पहचानती ? गंगा में पल रहे जीवों को हमलोग खाते हैं जिनके अंदर मनुष्य के अस्थियों का रस होता है अर्थात हमलोग अपनों के अस्थियों का अप्रत्यक्ष्य रूप में सेवन करते हैं ।
गंगा को मुक्ति दायिनी कहते हैं यदि ऐसा है तो फ़िर गंगा में रहनें वाले जीव अवश्य मुक्ति के पात्र होनें चाहिए पर उनको तो हमलोग खा जाते हैं । सोलहवी शताब्दी से आज तक जिस गति से विज्ञानं विकास किया है ठीक उसी गति से गंगा का प्रदुषण हुआ है अर्थात जैसे -जैसे मनुष्य का मन प्रदूषित हुआ , वैसे - वैसे गंगा प्रदुसित हुई ।
विज्ञानं का जन्म हुआ ज्ञान पानें के लिए लेकिन मनुष्य इसके माध्यम से ज्ञान के ऊपर अज्ञानकी चादर
डालनें लगा ।
गंगा को यदि आप बाहर से देखेंगे तो आप को मैली दिखेगी क्योंकि इन्द्रियां जानती ही नही हैं की सत क्या है ? सत चेतना से पकड़ा जाता है । गंगा तब भी निर्मल थी और आज भी निर्मल है उनके लिए जिनका अन्तः कर्ण निर्मल है । गंगा नदी नही है यह तो साधना-श्रो़त है और साधना-श्रोत मैला कैसे हो सकता है ?
गंगा घाट पर बैठ कर यदि आप चाहें तोवह सब पा सकते हैं जिनकी तलाश आप कर रहे हैं ।
गंगा शरणम् गच्छामि ।
=====ॐ=======