Wednesday, November 18, 2009

वेद् और गीता

युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र से चल कर गीता लोगों के घर-घर में पहुंचा , लोगों को बदलनें के लिए
लेकिन -----------
लोग गीता को ही बदल डाले ।
आज गीता के नाम पर लोगों की भीड़ तो इकट्ठी कर ली जाती हैं पर लोगों को गीता के स्थान पर ------
कहानियाँ सुनाईजाती हैं .....क्या कभी आप इस बात पर सोचे हैं ?
क्या आप जानते हैं ? अलबर्ट आइंस्टाइन , मैक्स प्लैंक और श्रोडिन्गर जैसे महान वैज्ञानिक गीता के
माध्यम से विज्ञान को नई राह दिखायी और भारत में धर्माचार्य लोग कौन सी राह दिखा रहे हैं ?

गीता सूत्र 17.23 में परम कहते हैं.....सृष्टि के प्रारम्भ में वेद्, ब्रह्मण और यज्ञों की रचना मैनें की ।
वैज्ञानिक दृष्टि से वेदों का समय अज्ञात है लेकिन इतना कहा जा सकता हैं की वेदों का सम्बन्ध सिंध नदी -
सभ्यता से जरूर है । गीता एवं महाभारत का समय लगभग 5561-800 B.C. के मध्य माना जा सकता है ।
भारत के मान्य भूतत्व वैज्ञानिक BB.Lall कहते हैं की कुरुक्षेत्र में महाभारत - युद्ध लगभग 830 B.C. के
आस-पास हुयी दिखती है ।
रिग-वेद् जो प्राचीनतम वेद् है उसको लोग 1700-1100 B.C. के आस-पास का मानते हैं । गीता में रिग-वेद् ,
यजुर्वेद एवं साम-वेद् --मात्र तीन वेदों की चर्चा है अर्थात उस समय तक चौथा वेद् नही बना था --यहाँ आप देखे
गीता-सूत्र 9।17, 9।20 ।
गीता परमात्मा की किताब है लेकिन लोगों से दूर क्यों है , कुछ गहरा कारण तो होगा ही--इस बात पर आप
सोंचें । प्रारम्भ में यज्ञों, ब्राह्मण तथा वेदों की रचना को परमात्मा से होनें की बात की गई है जिसके
सन्दर्भ में हम यहाँ कुछ बातों को देख रहे है । गीता-सूत्र 18.42 में ब्राह्मण की परिभाषा दी गई है --यह
सूत्र कहता है की सम-भाव तथा निर्विकार परमात्मा से परमात्मा में स्थित जो होता है , वह ब्राहमण होता है ।
यज्ञों के सम्बन्ध में आप देखें गीता-सूत्र 4.24--4.31 , 4.33 , 9.15 , 17.11--17.13 तक ।
ऐसे कर्म जिनका केन्द्र परमात्मा होता है , यज्ञ कहलाते हैं । गीता के यज्ञ सम्बंधित सुतोंकी चर्चा हम अलग से
करेंगे यहाँ तो उनका सारांश मात्र दिया गया है ।
अब आप वेदों का गीता से क्या सम्बन्ध है को देखिये ---------
यहाँ हमें देखना पडेगा गीता सूत्र --2।42--2.46 , 6. 40 , 6.45 , 9.20--9.22
सूत्र कहते हैं ----
वेदों में भोग का समर्थन किया गया है और भोग - प्राप्ति के उपायों को भी बताया गया है तथा स्वर्ग -प्राप्ति को
परम माना गया है । गीता का उद्धेश्य है परम-पद की प्राप्ति वह भी गुनातीत की स्थिति मिलनें के माध्यम से ।
गीता कहता है की ऐसे लोग जिनकी श्रद्घा गीता में होती है उनका वेदों से सम्बन्ध नाम मात्र का ही होता है ।
गीता कहता है , स्वर्ग उनको मिलता है जिनकी साधना बीच में खंडित हो जाती है , जो वैराग्य तक नही
पहुँच पाते ,उन्हें संसार अपनी तरफ़ भोग में उतार लेता है ।
गीता सांख्य योग की गणित है इसको अपनें मनोरंजन का साधन न बनाएं ।

======ॐ=======

कृष्ण और हम

जब कृष्ण साकार रूप में हम सब के साथ थे तब हम लोगों में से कितनें उनके साथ थे ?
उस समय उनको परमात्मा माननें वाले कितनें थे ?
श्री कृष्ण मथुरा को छोड़ कर द्वारिका क्यों गए ?
असुर कौन थे ?
इन प्रश्नों के सम्बन्ध में आप को अपनी बुद्धि लगानी है तब आप की बुद्धि स्थिर हो सकाती है जो गीता का उद्धेश्य
भी है। गीता में अर्जुन का पहला प्रश्न है---हे प्रभु आप कृपया मुझे स्थिर प्रज्ञ की पहचान बताएं ।

जब कंश का अंत होगया तब लोगों ने समझा की अब शान्ति का वातावरण होगा लेकिन ऐसा हुआ नही , कंश
के समर्थकों का कहर तब भी जारी था और श्री कृष्ण लोगों के हित को देखते हुए मथुरा को छोड़ कर द्वारका
चले गए ।
गीता सूत्र 4.7, 4.8 कहते हैं-------
परमात्मा निराकार से साकार रूप धारण करता है ---सत पुरुषों की रक्षा करनें के लिए, पापियों के विनाश
के लिए तथा धर्म की स्थापना करनें के लिए । अब आप सोचो की क्या एस हुआ भी ?
महाभारत की लडाई समाप्त हुई , श्री कृष्ण द्वारका वापस चलेगये, श्री कृष्ण अपना शरीर त्याग कर अव्यक्त में
चले गए और द्वारका अरब सागर में समा गया , क्या परमात्मा जिस स्थान पर रहें हो उस स्थान की ऐसी
दशा होनी चाहिए ? अब आगे और देखिये--द्वापर युग के बाद गया-गुजरा भोग युगके रूप में कली युग आगया ।
यदि द्वापर में पाप का अंत हुआ होता तो द्वापर के बाद पुनः सत-युग आना चाहिए था न की कलि युग ।
श्री कृष्ण की लडाई असुरों से थी , आख़िर ये असुर थे कौन ?
असुरों का काले रंग से गहरा सम्बन्ध था , ऐसी बात पुरानों के आधार पर देखि जाती है । जब महाभारत
युद्ध हुआ उस समय विश्व में तीन पूर्ण विकशित सभ्यताएं थी ; एक हमारी सभ्यता, दूसरी इराक में थी
और तीसरी थी मिस्र में । इराक सभ्यता में एक स्थान उत्तर में था जिसका नाम था - असुर आज भी वह जगह
है । यह सभ्यता तीन भागों में थी ; उत्तर में असुर स्थान के चारों तरफ़ थी , मध्य भाग की सभ्याता को
बैबिलोंन कहते थे और दक्षिण में जो थी उसे सुमेर नाम से जाना जाता था । यहाँ के लोगों के पास उच्च कोटि
की ज्योतिष एवं विज्ञान था। क्या ऐसा सम्भव नही की भारत में आकार जो लोग श्री कृष्ण से लड़ रहे थे वे
इराक के असुर थे । सुमेरु लोग अपनें को काले सर वाले इन्शान भी कहते थे ।
गीता आप का पिछले कई हजार साल से इन्तजार कर रहा है , अब तो उसे अपनाइए ।
=====ॐ========

गीता का विज्ञानं

वैज्ञानिक की नजर अन्तरिक्ष पर टिकी है लेकिन वह यह नही जानता की -------
उसके घर में क्या होरहा है ?
वैज्ञानिक आकाश में तारों की गड़ना कर रहा है लेकिन वह यह नही जानता की -----
वह जो कमीज पहना है उसमें कितनी बटनें हैं ?
विज्ञान अन्तरिक्ष में पानी खोज रहा है और पृथ्वी पर लोगों को पर्याप्त पानी की ब्यवस्था नही है
गीता के निम्न 12 श्लोकों के माध्यमसे जो विज्ञान निकलता है उसे देखें ...........
गीता-सूत्र
2.28 , 8.16 , 13.33 , 13.19 ,15.16 , 7.4--7.6 , 14.3 ,14.4 , 13.5 , 13.6
जिसको हम कल तक जानते थे , जिसको हम आज जानते हैं और जिसको हम जाननें की कोशिश
कर रहें हैं चाहे वह एक कण हो या अन्तरिक्ष हो वह सब हमारे इन्द्रीओं की पकड़ का परिणाम है ।
मनुष्य अपनें इन्द्रीओं की क्षमता उपकरणों के विकास से बढ़ा रहा है क्योकि धीरे-धीरे मनुष्य की
इन्द्रियाँ कमजोर पड़ती जा रही हैं । अभी-अभी जापान के वैज्ञानिकों को पता चला है की एक चूहे में
सूंघनें के लिए 1000 receptor-gens होते हैं और सारे सक्रीय होते है और मनुष्य में इनकी संख्या
होती तो है 1200 लेकिन उनमें से केवल 800 ही सक्रीय होते हैं । हम क्यों अपनें इन्द्रीओं की क्षमता
खो रहे हैं ?
वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में तारों की चालों पर अपनी पैनी नजर लगाए हुए है लेकिन यह नही जानता की
उसका बच्चा क्या कर रहा है ?
गीता कहता है जो है उसे जानो, अच्छी बात है लेकिन इतनी सी बात याद रखना --जब तक तुम उसे
कुछ जान पाओगे तबतक वह बदल चुका होगा । आनंद बुद्ध से एक बार पूछा ----भंते! परमात्मा
क्या है ? , परमात्मा के नम पर आप चुप क्यो रहते हैं ? बुद्ध कहते हैं ---बोला उसपर जाता है जो है ,
परमात्मा तो अभी हो रहा है और जो हो रहा है उसकी परिभाषा क्या होगी ?
विज्ञानं अन्तरिक्ष में पृथ्वी को खोज रहा है और विज्ञान के कारण पृथ्वी यहाँ आखिरी श्वाश ले रही है -
वैज्ञानिकों को पता है की यह पृथ्वी अब ज्यादा दिनों तक नही रह पाएगी अतः क्यों न कोई नया
ठिकाना खोज लिया जाय ?
गीता 5000 वर्ष पहले बता चुका है की जब तक पञ्च महाभूत नही होते तब तक जीव का निर्माण नही
हो सकता । पञ्च महाभूत हैं ----पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि, आकाश । यहाँ आकाश को आप समझिये --
आकाश का अर्थ है स्पेस [space -an electro-magnetic medium ] जो टाइम-स्पेस फ्रेम का एक
कंपोनेंट है और समय की तरह सर्वत्र है । गीता कहता है की जब पाँच महाभूत माया के अपरा प्रकृत से
तैयार होते हैं और सम्यक वातावरण बनता है तब इनमें मन,बुद्धि, अंहकार तथा परा प्रकृत से चेतना का
फुजन होता है । अपरा एवं परा प्रकृतियों के फुजेंन में आत्मा-परमात्मा का फुजेंन होता है और जिव का निर्माण होता है ।
गीता-सूत्र 13.19 , 15.16 कहते हैं --प्रकृत एवं पुरूष से टाइम-स्पेस है और यह सूत्र शांख्य दर्शन की
बुनियाद हैं ।
आप यदि वैज्ञानिक हैं तो कभी गीता के इन सूत्रों पर भी सोचना क्या ये सूत्र किसी भी तरह आधुनिक
विज्ञान की कल्पनाओं से ज्यादा स्पष्ट नहीं हैं ?
========ॐ=========

जरा सोचना

बुद्ध राजा थे , उनके सभी अनुआयी भी राजा थे और उनके सभी उपाध्याय उच्च कोटि के
ब्राह्मण थे लेकिन आज की स्थिति क्या है ?
महाबीर राजा थे , उनके सभी अनुआयी भी राजा थे और उनके सभी गणउच्च कोटि के
ब्राह्मण थे पर आज क्या है ?
महाबीर नंगे बदन सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और आज भारत में सबसे अधिक कपडों की
दुकानें जैनिओं की हैं
महाबीर-बुद्ध के बाद उनके गण- उपाध्यायों द्वारा उनके शास्त्रों की रचनाएँ की गयी लेकिन
आज वे कहाँ लुप्त हो गए ?
जो राजा महाबीर - बुद्ध के साथ थे वे आज कहाँ हैं ?
यहाँ जो भी आता है चाहे वह-------------------
राजा हो
धर्म हो
मन्दिर हो
या फ़िर धर्म बनानें वाला हो सभी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं ----बात क्या है ?
ऊपर जो माध्यम बताये गए वे हम सब के आगे-आगे चलते हैं , कुछ दूरी तक तो हम उनके कदम से
कदम मिलाकर चलते तो हैं लेकिन फ़िर रुक जाते हैं और वे आगे चले जाते हैं ।
जो हमारे आगे - आगे चलते हैं वे हमें उस से मिलाना चाहते हैं --------------
जो कभी समाप्त नही होता , वे जल्दी में होते हैं क्योकि उनके पास समय कम होता है , वे हमारी गति को
अच्छी तरह से जानते हैं , हमें तेज गति से चलाना चाहते हैं पर हम चलना नही चाहते ।
वे चाहते हैं की हमलोग उसको पहचान ले जो सत्य है , जो कभी समाप्त नही होनेवाला है , जिस से
हम हैं और सारा ब्रह्माण्ड है पर हम पत्थर की शिला की तरह भोग में रुके होते हैं ......ऐसे में क्या हो
सकता है ?
सत-पुरूष के पैर से पैर मिलाकर चलना अति कठिन काम है पर एक जगह उनके बाद उनका मन्दिर
बनाकर उनकी मूर्ति की पूजा करना अति आसान है और यही हमें भाता भी है ।
हम अभी तक तो चुकते रहे हैं क्या अब भी चूकना है ?

======ॐ========

त्याग को समझो

त्याग स्व का कृत्य नही , यह साधना-यात्रा का फल है
गीता-कर्म योग का सारांश है ---------------------
चाह एवं अंहकार रहित कर्म , कर्म-योग है ।
भोग से भोग में हम हैं और जिवधारिओंमें मनुष्य एक मात्र ऐसा जिव है जो भोग को समझ कर आगे की यात्रा
कर सकता है जिसको योग कहते हैं । योग का अर्थ है वह जो परम - प्रीतिकी लहर दिल में उठाये ।
जब परम प्रीति की लहर उठती है तब मन-बुद्धि में शब्द एवं चाह से परिपूर्ण भाव नही होते ।
चाह तथा अंहकार के साथ परम-प्रीति की लहर नही उठ सकती - परम-प्रीति की लहर एक बवंडर है जिसमें
दिशा तो होती है लेकिन उस दिशा को वही समझता है जो उसमें होता है , बाहरी ब्यक्ति उस की दिशा को नही
समझ सकता ।
राग, आसक्ति, कामना, क्रोध, संकल्प, विकल्प, लोभ, भय , मोह एवं अंहकार बंधन हैं इनको छोड़ना इतना
आसान नही , ये स्वतः छूट जाते हैं तब जब भोग-कर्म योग कर्म में बदल जाते हैं और ऐसा तब होता है जब
शरीर के कण-कण में परम की ऊर्जा भर जाती है ।
कर्म-योग की साधना जैसे-जैसे आगे बढती है वैसे-वैसे भोग तत्व स्वतः समाप्त होनें लगते हैं , उनकी पकड़
ढीली पड़नें लगाती है , मैं- तूं का भेद मिट जाता है ।
हम आम खाते हैं पर यह नहीं सोचते की यह आम क्या है , क्या कभी आप इस बात पर सोचे हैं ?
आम जो आज हमें उपलब्ध है वह एक बीज की लम्बी यात्रा का फल है ।
एक बीज धीरे-धीरे एक पेंड बनता है , जब पेंड तैयार होता है तब प्रकृत उसपर फल देती है , वह फल सभी
तरह के जीवों को आकर्षित करता है , उसमें एक अलग तरह की खुशबूं आजाती है जो अन्य जीवों को
आकर्षित करती है । आम के बीज की ही तरह एक साधक जब साधना में आगे बढ़ता है तब प्रकृत उसमें
भी फल खिलाती है , फल के रूप में उसे वैराग मिलता है , वैरागी के शरीर से भी एक खुशबूं निकलती है जो
भोगी एवं योगी दोनें को अपनी तरफ़ खीचती है । वैरागी से भोगी अपनें भोग -प्राप्ति की कामना के कारण
आकर्षित होता है और योगी अपनें योग को और आगे बढानें के लिए आकर्षित होता है ।
गुनातीत योगी एक पके आम जैसा होता है , वह जहाँ भी होता है उसके चारों तरफ़ एक ऐसी खुशबूं होती है जो .......
लोगों को अपनी तरफ़ खीच लेती है ।
हमें अपनें को देखना है , आप ज़रा सोचना क्या वह जिसको हम त्यागी कहतेहैं , उसमें मैं का भाव नही होता,
क्या उसमें सूक्ष्म अंहकार की छाया नही होती ? होती है और जब तक कर्म में मैं एवं अहंकार है , वह कर्म
त्याग हो नही सकता ।
त्याग - भाव का आना शुभ लक्षण है बश इतना होश बना कर रखना है की यह मैं नही कर रहा , मुझसे
हो रहा है , मैं तो एक माध्यम हूँ ।
=====ॐ=======

क्या यही सत्य है ?

जब हम मंदिर में होते हैं तब ऐसा क्यो दिखतेहै जैसे जेल में हैं ?
मन्दिर जाते समय हम एक अपराधी जैसा स्वयं को क्यों दिखाते हैं ?
घर में जब कभी कोई धार्मिक कार्य होता है तब हम जल्दी में क्यों होते हैं ?
जब हम पूजा में बैठे होते हैं तब शरीर के उस भाग में भी खुजली होनें लगाती हैं जहाँ कोई उम्मीद नही होती ---ऐसा क्यों होता है ?
जब पूजा-कार्य समाप्त हो जाता हैं तब हमें सकूंन क्यों मिलता है ?
मन्दिर में पत्थर की मूरत न देखती है , न सुनती है और न ही बोलती है फ़िर भी हम उसके सामनें
ऐसे होते हैं जैसे थानेदार के सामनें खड़े हो --ऐसा क्यों ?
कहीं ऐसा तो नही की हम भय से मुक्त होनें के लिए परमात्मा को खोजते हैं ?
परमात्मा को हम कामना पूर्ति - करता के रूप में क्यों देखते हैं ?
कामना करते समय क्या कभी हम यह सोचते हैं की यह हमारी कामना किस प्रकार की है --क्या ऐसी
कामना परमात्मा के सामनें रखनें लायक भी है ?
हम ऐसा क्यों सोचते हैं --पड़ोसी का बेटा या बेटी फेल हो और मेरा बेटा या बेटी पास हो ?
हम ऐसा क्यों सोचते हैं की जो हमें मिले वह किसी और को न मीले ?
इस प्रकार के अनेक प्रश्न हैं जिन पर हम सब को सोचना चाहिए , क्या आज से हम इस सोच पर चलेंगे ?
यदि ऐसा हुआ तो हममें एक क्रांति की लहर दौड़नें लगेगी और तब हमें परमात्मा को खोजना
नही पडेगा ।
=====ॐ======

मन्दिर रहस्य

मन और मन्दिर का गहरा सम्बन्ध दिखता है, हम यहाँ मन्दिर की एक श्रंखला प्रारम्भ कर रहे हैं जो मन-साधना
के सम्बन्ध में आगे चल कर आप को मदद करेगी। आइये अब हम कुछ ऐतिहासिक बातोंकी स्मृति में चलते हैं।
कुरुक्षेत्र का प्राचीन शिव-मन्दिर........गीता-श्लोक-१
कुरुक्षेत्र को गीता महाभारत युध्य से पहले धर्म-क्षेत्र की संज्ञा देता है जैसा की गीता-श्लोक-१ से स्पस्ट है---क्यों यह
धर्म क्षेत्र था? गीता साधना में आप इस बिषय को अपना एक लक्ष्य बना सकते हैं। थानेश्वर और कुरुक्षेत्र एक शहर
के दो नामलगते हैं। डेल्ही-चंडीगढ़ मार्ग पर करनालसे ३० मिनट की दूरी पर तीर्थ स्थान कुरुक्षेत्र है। थानेस्वर ५१
शक्ति-पीठों में एक है। राज्य बर्धन के छोटे भाई प्रभाकर बर्धन के पुत्र--हर्ष बर्धन थानेश्वर के राजा 590-657
समयावधि में थे। महमूद गजनी थानेश्वर को 1011 में अपनें अधिकार में ले लिया था और लूटनें के इरादे से इस
प्राचीन मन्दिर को तोड़ दिया था। पूर्व में भारत की सारीसंपत्ति मंदिरों में बंद होती थी। गुजतात में सोम नाथ का
मन्दिर भी इसके द्वारा ही तोडा गया था। सन १९५१ तक थानेश्वर एक गाँव जैसा था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्थान
घग्गर नदी के तट पर है जो प्राचीनतम पवित्र नदी सरस्वतीमें मिलाती थी। थानेश्वर इलाका सिंध नदी की सभ्यता
का क्षेत्र है जो अपनें में अनेक ऐतिहासिक रहस्यों को छिपाए हुए है।
अयोध्या का राम-मन्दिर
बाबर 1526-1530 तक भारत पर शाशन किया और सन 1528 में राम-मन्दिर को तोड़वा कर मस्जिद में इसे
बदल दिया ----ऐसी मान्यता है। बाबर के दस वर्ष बाद अकबर गद्दी पर बैठे समय में भारत के सभी भक्ति
से परिपूर्ण महान संतों का आगमन हुआ। बाबरी मस्जित के ठीक ४६ वर्ष बाद उसी राम-मन्दिर परिषर से राम
चरित मानस की रचना प्रारम्भ किया लेकिन पता नहीं क्यों राम-मन्दिर की जिक्र नही कर पाए। कहते हैं की
तुलसी दास के साथ हर पल हनुमानजी रहते थे और रम की मूरत उनके दिल में बसी थी पर राम का जन्म स्थान
उनके मानस-पटल परक्यों नही आया? अकबर के दरबार में अनेक उच्चाधिकारी हिंदू थे पर सब क्यों चुप थे ---
सोचनें का विषय लगता है।
काशी विश्व नाथ मन्दिर --काशी
औरन्जेब सन 1669 में इस मन्दिर को तोडा था जो अपनें में १२ ज्योतिर्लिन्गम में से एक को धारण किए हुए है।
काशी विश्वनथ मन्दिर ११२ वर्ष तक जीर्ण अवस्था में रहा जिसको अहिल्या बाई १७८० में पुनः बनवाया और
पंजाब के राजा रंजित सिंह १८३९ में स्वर्ण कलश से इस को सुसोभित किया। काशी नरेश को गीता और महाभारत
में जगह मिली है पर यह मन्दिर जीर्ण अवस्था में १०० वर्ष तक पड़ा रहा।

मन्दिर जानें से क्या होगा?

विज्ञानं सभीं सूचनाओं को चार प्रकार से देखता है--ठोस[solid] , तरल[liquid], गैस[gas], और प्लास्मा [plasma] । विज्ञानं कहता है------सभीं स्टार प्लास्मा से बनें हैं, प्लास्मा गैस का ऐसा माध्यमहै जिसमें कुछ आजाद एलेक्ट्रोंस होते हैं और यह गैस इलेक्ट्रो-मग्नेटिक माध्यम से प्रभावित होता है। आप सोच रहे होंगे -----
यह बात यहाँ मन्दिर के सम्बन्ध में क्यों बतायी जा रही है?----तो अब आप इस राज को समझिये।
छोटे बच्चे को उसके अविभावक उसकी उँगलियों को पकड़ कर चलाते हैं और एक दिन वह बच्चा अपनें मां- पिता की उंगली को पकड़ कर उनको चलाता है। ईशा पूर्व में लोग अति सरल थे धर्म के नाम पर सब कुछ उन्हें स्वीकार था । उस समय लोग विज्ञानं शब्द से परिचित भी न थे। उस समय जो परम गणित-विज्ञानं लोगों ने दिया वह तो उनका प्रकृत का अनुभव था। प्रकृत को समझनें के लिए उन्होंने अपने बुद्धि को खोला और फलस्वरूप गणित-विज्ञानं निकला। Prof. Albert Einstein says---Future religion will be a cosmic religion based on experiences and free from all dogma।
प्राचीनतम मन्दिर सिद्ध योगियों के सिद्ध स्थान हैं जहाँ प्लास्मा रूपी चेतना का सघन माध्यम होता है
जिसमें आजाद एलेक्ट्रोंन की तरह चेतन मय कण गतिमान होते हैं जिनको स्थिर होनें के माध्यम की तलाश रहती
है। ये चेतन मय कण संदेश बाहक कण होते हैं जो योगियों के अनुभव को देना चाहते हैं जिससे ज्ञान के दीपक को
जलाये रखा जा सके। मन्दिर एक ऐसा स्थान है जहाँ कामुक, कामना तृप्ति के लिए भ्रमित लोग और सत्य के
खोजी भी होते हैं। प्रति दिन मन्दिर जानें से एक दिन आही जाता है जब हम अन जानें में वहाँ के उर्जा-क्षेत्र से पूरी
तरह चार्ज हो जाते हैं और वहाँ गति शील योगियों के चेतनमय संदेश वाहक कण हम में प्रवेश कर जाते हैं और हम रूपांतरित हो जाते हैं। यदि हमारा रूपांतरण होश में होता है तब हम बुद्ध बन जाते हैं और यदि रूपांतरण बेहोशी में हुआ तो हम पागल भी हो सकते हैं। मन्दिर जाना अच्छा है --आप जायें लेकिन इसको मनोरंजन का साधन न बनाये। मन्दिर प्रयोगशाला है जहाँ वे जाते हैं जो किसी भी कीमत पर सत्य को पाना चाहते हैं।
=======ॐ=======

मन्दिर की बनावट

ध्यान में लीनएक योगी और एक प्राचीन मन्दिर के छाया-चित्रों को देखो------
ऐसा योगी जिसकी शिखा ऊपर की ओर खड़ी हो, वह पद्म-आशन में बैठा हो और ध्यान की गहराई में पहुंचा हो, वह
योगी सजीव मन्दिर ही होता है। मन्दिर के ऊपर आकाश को निहारता ध्वज-दंड योगी की चोटी है, मन्दिर का गुम्बज योगी का सर है, मन्दिर की काया योगी की काया है ।
मन्दिर कोई स्थान या ईमारत नहीं यह तो द्वार है --द्वार कुछ करता नहीं केवल लोगों को देखता रहता है।
मन्दिर-द्वार के बाहर भोग- संसार होता है और अंदर गर्भ-गृह में वह शुन्यता होती है जो सीधे परम को दिखाती है।
मन्दिर के घंटे को क्या आप नें कभीं बजाया है? यदि नहीं तो बजा कर देखना। घंटे से जो ध्वनि गूंजती है उस
ध्वनि में स्वयं को दुबोनें का यत्न करना, हो सकाता है आप को ओंकार की वह परम ध्वनि मिले जिसकी चर्चा संत
जोसेफ बायबिलमें करते हैं और गीता जिसको ॐ, अब्यक्त ध्वनि एक अक्षर कहता है।
मन्दिर का परिक्रमा स्थल
मन्दिर के गर्भ-गृह के चारों तरफ़ परिक्रमा के लिए जगह होती है जहाँ लोग परिक्रमा करनें के बाद गर्भ-गृह में
प्रवेश करते हैं। परिक्रमा का अर्थ है संसार की भाग-दौड़ --संसार की भाग -दौड़ से थाकानें के बाद मनुष्य यह
समझ सकता है की वह क्यों,किसके लिए और कब तक भागता रहेगा।मन्दिर की परिक्रमा हमें बताती है की तुम
यहाँ क्यो आए हो?
मन्दिर का गर्भ-गृह
मन्दिर के गर्भ गृह के मध्य में मूरत हो सकती है या कुछ नहीं भी हो सकता। गर्भ-गृह के मध्य बिन्दु को यदि
ऊपर की ओर ध्वज- दंड से मिलाया जाए तो मन्दिर दो भागों में बिभाजित होता है। गर्भ गृह में मंत्रों का जाप होता
है, जाप से उठनें वाली ध्वनि चारों तरफ़ मन्दिर की दीवारों से टकराकर एक अलग ध्वनि पैदा करती है जो अंदर
की ऊर्जा को रूपांतरित करती है।
गर्भ-गृह में कोई खिड़की नहीं होती। भारत में जब ब्रिटिश आए तब उनके साथ धर्म-प्रचारक भी आए। ब्रिटिश
लोग भारतीय मंदिरों को शरीर के लिए हानिकर बताया लेकिन जब वे मन्दिर के पुजारिओं को देखा तो उनको
बिश्वाश न हुआ की यहाँ रहनें वाले इतनें स्वस्थ होंगे?
मन्दिर संसार एवं परम के मध्य एक रहस्य है जो अपनें इन्द्रीओं से कुछ नहीं ब्यक्त करता लेकिन उसकी चुप्पी वह सब कह देती है जिस को हम सुनना नहीं चाहते।
======ॐ=======

आत्मा क्या है ----१

तिहास कार गीता को 5561 b c --800 b c के मध्य की उपज बताते हैं और हम भारतीय तब से आज तक आत्मा को अपनें-अपनें अधरों पर चिपका रखे हैं जिस को न तो अंदर ह्रदय में पहुचनें देते और न ही बाहर निकलनेंदेते बात क्या है ?---ज़रा सोचिये ।
भारत का बच्चा - बच्चा जानता है की आत्मा अमर है जो शरीर के बाद भी जिंदा रहता है लेकिन अकेले अंधेरे में
जानें में घबडाता है ---हमेआत्मा का ज्ञान क्यों नहीं बदल पाया ?
आत्मा को गीता में समझनें के लिए आप इन श्लोकों को देखें --------
२.१९---२.३०
३.४
८.४
१०.२०
१३.१६ १३.२२ १३.२९ १३.३२ १३.३३
१४.५
१५.७ १५.८
१८.६१
आठ अध्यायों के २४ सूत्र यहाँ आप केलिए दिए गए जिनको आप गीता में देख सकते हैं ।
गीता में परम श्री कृष्ण आत्मा को कुछ इस प्रकार से ब्यक्त किया है-------
आत्मा शरीर में द्रष्टा है , निर्विकार है, अपरिवर्तनीय है , समयातीत है , अप्रभावित है , अब्य्य है , आत्मा परमात्मा
है , आत्मा को तीन गुन शरीर में रोक कर रह्कते हैं और आत्मा जब शरीर छोड़ कर जाता है तब इसके साथ
मन-इन्द्रियाँ भी होती हैं ।
परम श्री कृष्ण कहते हैं की आत्मा अचिन्त्य है अर्थात जिसके बारे में सोचना सम्भव नहीं पर स्वयं गीता में सबसे
पहले आत्मा पर ही बोलते हैं ....ऐसा क्यों ?
गीता का अर्जुन मोह ग्रसित है , मोह ग्रसित ब्यक्ति में अज्ञान-भरा होता है , जिसकी बुद्धि संदेह में उलझी होती है --
और ऐसे ब्यक्ति से परम श्री कृष्ण यह उम्मीद करते हैं की वह आत्मा को समझ कर उनकी बात को स्वीकार कर
लेगा.....क्या ऐसा सम्भव है ?
गीता सूत्र ४.२८ कहता है----योग सिद्धि पर ज्ञान के माध्यम से आत्मा का बोध होता है ,गीता सूत्र १३.२ कहाता है
---ज्ञान वह जिस से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बोध हो और गीता सूत्र २.४२--२.४४ तक एवं सूत्र १२.३, १२.४ कहते हैं----
परमात्मा की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की अनुभूति है तथा एक साथ एक बुद्धि में भोग -भगवान् को रखना
सम्भव नहीं --अब आप सोचें की आत्मा को कैसे जाना जा सकता है....वह कौन सा माध्यम है जो परमात्मा-
आत्मा मय कर सकता है ?
आत्मा एक सहारा है --हमारे शरीर में प्राण के रूप में, जो रह-रह कर हमे अपनी ओर खिचता रहता है
=====ॐ=====

आत्मा क्या है ?------२

आप के लिए कुछ प्रश्न
१- विज्ञान विकास के साथ और अतृप्त क्यो होरहा है ?
२- आज विज्ञानं क्या खोज रहा है ?
३- सजीव क्या है ? और निर्जीव क्या है ?
४- कौन जड़ और कौन चेतन है ?
५- १४ मिलिओंन वर्ष पूर्ब १०० मिलिओंन वर्ग प्रकाश-वर्ष क्षेत्रफल का प्राथमिक हाइड्रोजन एटम जो बनाथाऔर जिस से ब्रह्माण्ड की रचना हुयी थी वह किस से और किस में बना था ?
यदि आप वैज्ञानिक सोच रखते हैं तो आप इन प्रश्नों को गंभीरता से देखें । आज २१वी शताब्दी विज्ञानं की
शताब्दी है , सभींलोगो का केन्द्र मन-बुद्धि तंत्र है , सब संदेह में जीते हैं क्योकि जितना गहरा संदेह होता है , उतना
गहरा विज्ञानं निकलता है । विज्ञानं की उर्जा संदेह है और गीता की उर्जा श्रद्धा है --श्रद्धा एवं संदेह एक साथ एक
बुद्धि में नही रह सकते । आप यह न सोचें की यहाँ गीता को विज्ञानं के साथ जोडनें का प्रयत्न किया जा रहा है ।
विज्ञानं की सीमा जहाँ समाप्त सी दिखने लगाती है वहाँ से गीता प्रारंभ होता है ।
५००० इशा पूर्व गीता आत्मा को ब्यक्त करनें के सम्बन्ध में कहा ---------
आत्मा सर्व ब्यापी , अच्छेद्य , अदाह्य , अक्लेद्य , अशोष्य तथा नित्य है [गीता सूत्र..२.२४] ।
आत्मा नाश रहित, अजन्मा, अव्यय है [गीता सूत्र ..२.२१] ।
आत्मा अचिन्त्य, निर्विकार , [सूत्र ..२.२५] है ,यह न तो मारता है , न मारा जा सकता है [गीता सूत्र..२.१९] ।
यह बात गीता की ७००० वर्ष पुरानी है लेकिन आज की कण -भौतिकी [particle physics ] की खोज क्या
यही खोज नही है ?----सोचिये और खूब सोचिये जब तक आप की बुद्धि रुक न जाए --जब बुद्धि रुक जाती है तब
सत्य की अनुभूति होती है ।
आज का क्वांटम विज्ञानं [quantum mechanics ] कहता है ----कोई भी सूचना पुरी तरह से समाप्त नही
की जा सकती और आज जो भी है वह चेतना का फैलाव है अर्थात विज्ञान में आज न तो कोई चीज जड़ है न ही
कोई चीज मुर्दा है । क्या आप जानते हैं की ---कब्र में दफन ब्यक्ति के बाल एवं नाखून बढ़ते रहते हैं --ऐसा क्यों
होता है जबकि वह ब्यक्ति मुर्दा हो चुका होता है ? यदि उनमें विकास हो रहा है तो उनमे प्राण ऊर्जा भी होनी चाहिए
और प्राण ऊर्जा का दूसरा नाम ही आत्मा है
हिंदू मान्यता कहती है ---कामना का गुलाम जब मरता है तब वह भूत बन जाता है । गीता सूत्र ८.६ एवं १५.८
कहते हैं---जब आत्मा शरीर छोड़ कर जाता है तब उसके साथ मन एवं इन्द्रियाँ भी रहती हैं तथा अतृप्त सघन
कामनाएं आत्मा को नया शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करती हैं । यह बात तो गीता की है अब आप विज्ञानं
को देखिये----विज्ञानं कहता है ....बड़े तारे अपने अंत समय में ब्लैक होल [black hole ] में बदल जाते हैं और
अपनें आस-पास के तारों को निगल जाते हैं अर्थात भूत बन जाते हैं ।
हमारा काम है आप के बुद्धि के उपर पड़े चादर को उठाना और जब ऐसा सम्भव होगा तबआप पढ़ेगे नही- लोग
आप को पढेंगे ।
=======ॐ======

आत्मा ---३

एकांत में बैठ कर अपनें सीने पर अपना हाँथ रखकर कुछ पल ह्रदय की धड़कन को सुनतेहुए आत्मा को महशुश करे ....आप यदि कुछ दिन ऐसा करेंगे तो आप स्वयं कुछ अवश्य पाएंगे-------
आइए अब कुछ गीता-सूत्रों को देखते हैं ।
१- आत्मा ह्रदय में धड़कता परमात्मा है --------------गीता-सूत्र १०.२० , १३.२२ , १५.७ , १८.६१
२- आत्मा अचल,स्थिर,सर्व ब्यापी , जन्म-मृत्यु से परे है --गीता-सूत्र २.२० , २.२४
३- शरीर में आत्मा सर्वत्र अकर्ता , विकार रहित द्रष्टा रूप में है --गीता-सूत्र १३.३२ , १३.३३
*** अब गीता की इन बातों के आधार पर आत्मा को बुद्धि के आधार पर समझते हैं...है तो यह काम कठिन
क्योंकि आत्मा की पकड़ बुद्धि सीमा के बाहर है ---यह तो एक अनुभूति है जो योग-सिद्धि से मिलतीहै ।
> वैज्ञानिक कहते हैं----जहाँ सर पर चोटी रखीजाती है वहाँ शरीर को नियंत्रित करनें का केन्द्र है जो अपनीं
सुबिधा के लिए मस्तिष्क की रचना करता है तथा जो शरीर समाप्ति के बाद भी जीवित ररता है । कुछ
लोग इसको चेतना [consciousness] और कुछ लोग मन कहते हैं । विज्ञान को अब कुछ तो ऐसा
दिखा है जो समयातीत सा दीखता है ।
> विज्ञानं का क्वांटम भौतिकी में आज जो भी है वह चेतना का फैलाव है और ऐसी कोई भी सूचना नही
जिसकी आत्मा न धड़कती हो जैसे एटम में एलेक्ट्रोंन चल रहे हैं प्रोत्रोंन - नयूत्रोंन में क्वार्क्स के जोड़े
धडक रहे हैं ----अर्थात सब का केन्द्र धडक रहा है और सब में जिव किसी न किसी रूप में है चाहे हम
उसे स्वीकार करें या न करें ।
## हम तभी किसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं जब हम यातो सब की स्वीकारें या सब को नक्कारें ...कभी हाँ
और कभी ना की यात्रा पर कभी कुछ नही मिलता ।
## विज्ञान कहता है -------
जब दो हलके न्युक्लियाई आपस में मिलते हैं तब बहुत अधिक ऊर्जा निकलती है और एक शक्तिशाली
एटम बनता है ....इस प्रक्रिया को डबल फ्यूजन कहते हैं । गीता सूत्र ७.४---७.६ , १३.५,१३.६, १४.३, १४.४
जीव - उत्पत्ति के सम्बन्ध में ट्रिपल नुक्लियर फ्यूजन की बात करते है जो इस प्रकार है --------
++ जब नर - मादा के अपनें -अपनें एटम मिलते हैं तब उन दोनों की अपरा एवं परा प्रकृतियाँ मिलती हैं जो
सिंगल फ्युजेंन है और इस फ्युजेंन में आत्मा का कण जब आजाता है तब डबल फ्युजेंन के साथ एक
नए जीव के भारी कण का निर्माण होता है ।
Try to understand the single nuclear-fusion of nuclear-physics and double nuclear fusion of gita
----perhaps gita-nuclear fusion will bring you closer to the fact where your own beingness
will be clear to you...which is the ultimate truth।
=======ॐ ========

दिब्य चक्षु क्या है ? --१

आत्मा-परमात्मा की खोज - कर्म नही , कर्म का फल है
आत्मा- परमात्मा की आहत ह्रदय में सुनाई पड़ती है जब उसमें परम प्रीति की लहर उठती है
परम प्रीति की लहर तब उठती है जब --------
इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली उर्जा निर्विकार हो जाती है और ----
ऐसा तब होता है जब -------
ऐश्वर्य दृष्टि मिलती है - आप देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ----
सूत्र -11.1-११ .4
सूत्र - 11.8
सूत्र - 18.75

अर्जुन परम श्री कृष्ण से अपना १०वा प्रश्न सूत्र ११.१ से ११.४ के माध्यम से इस प्रकार करते हैं -----
हे प्रभु ! आप जो कुछ भी कह रहे हैं ,सत्य है लेकिन यदि मैं आप का अबिनाशी निराकार स्वरूप को देख लेता तो -- --------
परम श्री कृष्ण सूत्र ११.८ के माध्यम से उत्तर देते हैं -------
तूं बात तो ठीक कह रहा है लेकिन अपनें प्राकृत आंखों से तो देख नहीं सकता अतः मैं तुझको ऐश्वर्य दृष्टि देता हूँ ।
परम श्री कृष्ण अपनें निराकार ऐश्वर्य रूपों को दिखाते हैं लेकिन इस से अर्जुन की मनो दशा में कोई परिवर्तन नही आता , यदि अर्जुन- परम श्री कृष्ण को समझे होते तो आगे प्रश्न न करते लेकिन अर्जुन ऐसा सब कुछ देखनें के बाद भी ०६ प्रश्न और करते हैं ।
परमात्मा की जब हवा लगाती है तब वह ब्यक्ति प्रश्न रहित हो जाता है । प्रश्न क्यों उठते हैं ?
प्रश्न संदेह की छाया हैं और संदेह अंहकार की छाया हैं । संदेह मन-बुद्धि तंत्र को ब्याकुल कर देते हैं और यह तंत्र
कम्पन स्थिति में आ जाता है तथा निर्णय लेने में असफल होता है ।
जब अंहकार पर संदेह होनें लगे तब समझना चाहिय की मन-बुद्धि से संदेह भाग रहा है ।
अंहकार पर संदेह का होना ह्रदय में प्रीति की लहर उत्पन्न करता है और प्रीति परमात्मा से मिलाती है।
अर्जुन को मोका मिला , परम उनको दिब्य दृष्टि दी लेकिन अर्जुन चुक गए ,गवा दिया यह मौका पर संजय को
[सूत्र १८.७५ ] दिब्य दृष्टि मिली थी, वेद्ब्यास जी से, जिस को वे नहीं गवाए और कुरुक्षेत्र में धृत- राष्ट्र को उन्हीं
दिब्य नेत्रों से गीता उपदेश सुनाया जो उपदेश परमसे अर्जुन को मिल रहा था ।
दिब्य दृष्टि प्राप्त ब्यक्ति संदेह रहित, प्रश्न रहित , परम प्रीति में डूबा परमात्मा से परमात्मा में अपनें को तथा
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखता है ।
गीता के माध्यम से आप भी दिब्य दृष्टि पा सकते हैं बश आप को परम से जुड़ना पडेगा ।
अर्जुन की तरह जब श्री कृष्ण गीता-उपदेश दे हरे थे तब हम-आप भी वहाँ थे लेकिन हमलोग भी चुक गए थे पर गीता में परम स्वयं अपनी आवाज के माध्यम से उपस्थित हैं- क्या आप -------
गीता में परम श्री कृष्ण को खोजेंगे ?
परमात्मा तो पलकों में बसा है लिकिन समझनें की कोशिश कौन करता है ?
गीता का परमात्मा भोग साधनों की प्राप्ति में कोई मदद नहीं करता पर ऐसी होश उठाता है की ------
यह मालूम हो जाता है की भोग बंधन क्या है ?---यही होश परमात्मा से मिलाती है ।
======ॐ======

वेद्-परिचय - १

भारत के ऋषि इतिहास बनानें के पक्ष में रूचि नहीं रखते थे , मात्र उस राह की ओर इशारा किया जिस राहपर वे स्वयं चलते थे ।
आज कोई ठोस प्रमाण उपलब्भ नहीं जिस के आधार पर यह कहा जा सके की ----------
०० वेदों की रचना कब हुयी ?
०० वेदों के रचनाकार कौन थे ?
०० वेदों की रचना में कितना समय लगा ?
क्या सूर्य जब जाता है तब कोई छाया छोड़ जाता है ? नहीं छोड़ता वैसे ही परम तुल्यब्यक्ति अपनी छाया नहीं
छोड़ता । हमारे आदि ऋषि सत्य से सत्य में जीते थे , जिनका भूत एवं भविष्य उनके वर्तमान में ही होते थे ।
वेदों की रचना जब हुयी तब उस काल के लोग टाइम-स्पेस में रहते हुए भी टाइम-स्पेस से मानशिकरूप से
प्रभावित नहीं थे । धीरे - धीरे समय गुजरा और वेद् उनलोगों के पास आगये जो लोग बुद्धि केंद्रित थे ।
बुद्धि-केंद्रित लोग वेदों को अपनें-अपनें नजरिये से देखना प्रारम्भ कर दिया और वेद् अपनी मूल आकृत को
खोनें लगे ।
महाभारत का समय 5561 bce - 800 bce के मध्य मानी जाती है , भारत के प्रशिद्ध पुरातत्व ग्यानी श्री
बी बी लाल इसको 836 bce मानते हैं । गीता में तीन वेदों की बात कही गयी है जबकि आज चार वेद् हैं --यह
चौथा वेद् कब और क्यों आया....यह बात आप के लिए है , आप इस पर सोच सकते हैं ।
सत-युग का मानव त्रेता-युग के मानव से भिन्न था , द्वापर का मानव त्रेता-युग के मानव से भिन्न था और
कलि-युग का मानव द्वापर के मानव से भिन्न है --यह परिवर्तन अपनें साथ सब में परिवर्तन लारहा है , इस
परिवर्तन चक्र में मूल को खोजना इतना आसान नहीं ।
आज जो वेद् हैं उनमे प्रारम्भिक वेदों को खोजना ही वेद्-साधना है ।
======ॐ=======

जागो रे

छोटे गोदी के बच्चे की भाति हम भारतीय कहानियां सुनानें एवं सुननें में आनंद लेते हैं और
कहानियों से विज्ञान , पश्चिम में निकलता है----ऐसा क्यों ?
१- भारत सूर्य के सात अलग-अलग रंगों के घोडों की कहानियां हजारों वर्षो से सूना रहा है और पश्चिम के लोग
सूर्य की किरण में red,orange,yellow,green,blue,indigo,violet सात रंगों की अलग - अलग सात
किरणों को खोज निकाला ।
२- भारत हजारों वर्षों से परम-प्रकाश की बात सारेविश्व को बता रहा है लेकिन प्रकाश की गति को नापा पश्चिम
के लोगों ने और इसका पूरा विज्ञान विकशित किया ।
३- गीता सूत्र 13.15 परमात्मा के सम्बन्ध में वही बात बताता है जो बात Heisenberg अपनें इलेक्ट्रोनके
Law of uncertainity में बताई है ।
४- गीता सूत्र 15.13 में ग्रेविटी की बात बताता है । राम- रावण युध्य तथा महाभारत युध्य में अनेक सर
पृथ्वी पर गिरे लिकिन इसको देख कर तथा इस सम्बन्ध में कहानियों को सुन कर कोई भारतीय ग्रेविटी
का सिद्धांत न दे सका , इसका सिद्धांत एक सेव के फल को जमीं पर गिरते देख कर दिया सर आइजक
न्यूटन नें --ऐसा क्यों हुआ ?
५- गीता सूत्र 7.9 अग्नि में तेज की बात बताता है लेकिन इस का विज्ञान दिया Max Planck नें क्यों कोई
भारतीय इस विषय पर नहीं सोचा ?
६- गीता सूत्र 7.8 कहता है --शब्द का स्वभाव है आकाश में गूंजना और इस सिद्धांत को पकड़ कर पूरा विज्ञान
विकशित हुआ पश्चिम में --ऐसा क्यों हुआ ?
७- भारत में अग्नि एवं शून्य को पकडा गया लेकिन दोनों का विज्ञान बना पश्चिम में --क्यों ?
हम भारतीय कब उठें गे ? जागो भारत बुद्धिजीवी जागो कब तक कहानियों को सुनाओगे और सुनते रहोगे ?

कहानियों को सुननें की आदत हमारी पुरानी है इसको बदलनें के लिए होश पैदा करनें की जरुरत है ।
कहानियां बच्चों को सुलानें के लिए तो ठीक हैं लेकिन उनके लिए यह जहर है जो बुद्धि केंद्रित लोग हैं ।
भारत में विज्ञान को भी कहानी में बदल दिया जाता है और पश्चिम में कहानिओं से विज्ञान निकाला जाता है ।

=======ॐ======

महाभारत-युद्ध

गीता के निम्न श्लोकों को देखिये .........
श्लोक 1.22 1.40----1.44 तक 2.31---2.34 तक 3.35 18.47
महाभारत युद्ध को अर्जुन तो ब्यापार कहते हैं[1.22] और परम श्री कृष्ण धर्म-युद्ध कहते हैं[2.31] ---अब आप सोचिये कि यह क्या था
अर्जुन जातिधर्म और कुल धर्म की बात करते हैं [1.४० से १.४४ तक ] और परम स्व-धर्म तथा पर धर्म की बात करते हैं [३.३५ एवं १८.४७ ].....अब आप गीता में जाति-धर्म,कुल-धर्म , पर - धर्म एवं स्व-धर्म को समझें
कुल की परम्परा के अनुकूल चलना एवं कुल की अनुबांशिका को सुरक्षित रखना कुल- धर्म में आता है और जाति के कर्मों को करना तथा जाति आधारित रीति - रिवाजों पर चलना कुल- धर्म में आता है परम स्व-धर्म एवं पर धर्म के सम्बन्ध में कहते हैं -------
अपना धर्म दोष पूर्ण होनें पर भी पर - धर्म से अच्छा होता है [ ३.३५ ,१८.४७ ]
महाभारत युद्ध में सभी तो एक परिवार के हैं वहां पर कौन है ?
महाभारत-युद्ध से क्या मिला ?
देश के सभी वैज्ञानिक,चिकित्सक तथा अन्य महत्वपूर्ण लोग तो समाप्त होगये सभी बुद्धि-जीवी समाप्त होनें से इस देश में युग परिवर्तित हो गया परम श्री कृष्ण जब वापस गए तो उनके राज्य में कलि-युग झांक रहा था , द्वारिका समुद्र में समां गयी , परम भी शरीर त्यागा
और उनके परिवार को अर्जुन द्वारिका से हस्तिना पुर ले आए क्योंकि उनलोगों का वहा रहना भी मुश्किल हो गया था
महाभारत से पूर्व भारत एक वैज्ञानिक देश था जहाँ पृथ्वी के अन्य भाग से लोग विद्या-ग्रहण
करनें आते थे और आज कलि-युग में यहाँ के लोग बाहर जाते हैं
निराकार जब साकार रूप में अवतरित होता है तब वह धीरे-धीरे अनंत से सिमित होनें लगता है, वह भी धीरे- धीरे संसार में उलझनें लगता है यदि आप अनंत से जुड़ना चाहते हैं तो आप को भी साकार से निराकार की यात्रा करनी पड़ेगी , क्या आप तैयार हैं ?

********** ॐ **********

प्रकृत-पुरूष

प्रकृत-पुरूष को समझनें केलिए देखिये गीता के निम्न श्लोकों को.......
श्लोक- 8.16
ब्रह्म लोक सहित सभी लोक पुनरावर्ती हैं----अर्थात आज हैं, कल समाप्त भी होंगे अर्थात सब का वर्तमान यह बता रहा है की यह धीरे- धीरे समाप्ति की ओर बढ रहा है
श्लोक- 13 . 1 , 13 . 2
सभी भूतों की रचना क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ के योग से है
श्लोक- 13 . 9
प्रकृत-पुरूष अनादि हैं \
श्लोक- 15 .1 से 15 . 3 तक
यहाँ बताया जा रहा है किसंसार क्या है ? संसार में तीन गुंणोंका एक माध्यमहै जिस से संसार सबको भोग- भगवन , क्रोध, लोभ,मोह एवं अंहकार के बंधन से बाधता है संसार को
वैराग्यता - अवस्था में जाना जा सकता है
श्लोक-15.16
संसार में दो पुरूष हैं ----एक नाशवान स्थूल शरीर है और दूसरा अनाश्वान जीव-आत्मा है
श्लोक- 12.20,13.17,13.22.15.7,15.15,18.61
आत्मा ही परमात्मा है
आप ऊपर दिए गए सूत्रों को बार-बार मनन करें तब आप समझ सकते हैं कि -----------
संसार परमात्मा का फैलाव है जिसमें हमें आकर्षित होनें के सभी तत्व भरे पड़े हैं जिनके प्रति
होश बनाकर ब्रह्म की अनुभूति पायी जा सकती है

मन की गति

क्या आप इन्हें जानते हैं?

  • मरकरी ग्रह अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 11 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
  • वीनस ग्रह अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 6.5 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
  • पृथ्वी अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 1671 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रही है
  • मार्स अपनें केन्द्र के चारो तरफ़ 866 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
  • जुपिटर अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 45656 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
  • सैटर्न अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ 36866 किलो मीटर प्रति घंटा की चाल से घूम रहा है
  • हमारा सम्पूर्ण सौर्य मंडल अपनें केन्द्र के चारों तरफ़ का एक चक्कर 237 मिलिओंन सालों में पूरा करता है

अब आप अपनें मन की चाल के बारे में सोच सकतें हैं

गीता आप को वह गणीत देता है जिस से आप अपनें मन की गति को माप सकते हैं

वैराग मोक्ष का द्वार है

वैराग्य मोक्ष का द्वार कैसे है .............इस के लिए देखिये गीता के निम्न सूत्रों को---------
सूत्र 2।42---2.45 तक
सूत्र 6.37---6.45 तक
सूत्र 9.20---9.22 तक
सूत्र 2.52.....15.3
गीता वेदों को परम मानता है वेदों में दो बातें बताई गई हैं; पहली बात भोग-समर्थन की हैं और दूसरी बातें योग से गुणातीत बनानें के सम्बन्ध में हैं गीता स्पष्ट शब्दों में कहता है की भोग और भगवानदोनों को एक साथ एकबुद्धि में नहीं रखा जा सकता , भोग योग का माध्यम है , माध्यम में रुकना जीवन को वह नहीं दे सकता जिसको जीवन तलाश रहा है
वेद कर्म-फल प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं और स्वर्ग - प्राप्ति को परम मानते हैं लेकिन गीता कहता है यदि चल ही पड़े हो तो भोग में होश उपजा कर आगे बड़ों गुणों कके परे का आनंद लो जो परमानन्द है गीता में अर्जुन का सातवाँ प्रश्न है----असंयमी पर श्रद्धा से भरा हुआ योगी का जब योग खंडित हो जाता है और इस बीच में उसका शरीर समाप्त होजाता है तब उसकी क्या गति होती है?
इस सम्बन्ध में परम कहता हैं----इस स्थिति में दो परिस्थितियां आती हैं; पहले में ऐसे योगी आते हैं जो वैराग्यावस्था में पहुचे होते हैं , वे किसी योगी-कुल में जन्म लेकर वैरग्य से आगे की यात्रा करते हैं
पर दुसरे प्रकार के योगी भी होते हैं जिनका शरीर वैराग्य से पहले समाप्त हो जाता है , ऐसे योगी कुछ
समय स्वर्ग में गुजार कर पुनः किसी अच्छे कुल में जन्म ले कर प्रारंभ से अपनी साधना शुरू करते हैं जब तक उनकी साधना का असर रहता है तब तक वे स्वर्ग में ऐश्वर्य भोगों को भोगते हैं
गीता स्वर्ग को भी एक भोग का स्थान मानता है और साथ में यह भी कहता है --- गीता में डूबे योगी
का वेदों से सम्बन्ध न के बराबर होता है
स्वर्ग से परमात्मा का द्वार नहीं दिखता , परमात्मा का द्वार मृत्यु - लोक में राग से वैराग्य
मिलनें पर दिखता है काम,कामना, क्रोध, लोभ, मोह, आलस्य , भय तथा अंहकार से अप्रभावित व्यक्ति --वैरागी होता है

मन-सूत्र

== मन एक माध्यम है जो भोग से तब जुड़ता है जब इस पर गुणों का प्रभाव होता है और निर्मल मन
परमात्मा से मिलाताहै
== विकार रहित मन परमात्मा है [गीता-10.22]
== विकार रहित श्रद्धा से परिपूर्ण मन-दर्पण पर परमात्मा प्रतिबिंबित हूट है
== मन अपरा प्रकृत का एक तत्त्व है[गीता-7.4,7.5 ]
== गुणों केप्रभाव में जब मन की उर्जा इन्द्रिओंसे जुड़ती है तब भोग-भाव उठते हैं और जब मन-उर्जा
चेतना से मिलाती है तब परमात्मा की झलक मिलती है
== विचारों को हर पल समझाना ही मन-ध्यान है
== स्मृति में खोया मन गुणों से मुक्त नहीं हो सकता और स्मृति रहित मन परमात्मा को दिखता है
== साधना-विधिओं की सीमा मन तक सीमित है आगे की यात्रा होश के साथ स्वयं होती है
== मन यातोस्व पर होता है या पर पर होता है--पर पर केंद्रित मन गुणों के प्रभाव में होता है और
स्व पर केंद्रित मन परमात्मा की झलक दिलाता है
== आत्मा केंद्रित योगी का मन विकार रहित होता है
== ज्ञान से आत्मा का पता चलता है
== ज्ञान योग सिद्धि का फल है
== योग-सिद्धि आसक्ति रहित कर्म से मिलाती है
== मन की रिक्तता के साथ परमात्मा होता है ज्योही मन की रिक्तता समाप्त होती है परमात्मा से
सम्बन्ध टूट जाता है
== विकारों का प्रभाव बुद्धि तक ही होता है , बुद्धि से आगे चेतना,आत्मा एवं परमात्मा पर विकारों
प्रभाव नहीं पङता
ऊपर की बैटन को यदि आप गीता में देखना चाहते हैं तो देखिये इन सूत्रों को ------------
2.14 2.41 2.42----2.44,2.60--2.63,2.67
3.4 3.34 3.37 3.40---43
4.38
5.22 5.23 5.26
6.4 6.24 6.26--30 6.33---6.36
7.4---7.7 7.10 7.12 7.13
8.3 8.6
10.20 10.2
12.3 12.4
13.2 13.5
15.3 15.7 15.8 15.9
16.21
18.38 18.49 18.50

मन परिचय

अब हम विज्ञानं की दृष्टि से मन- रहस्य को देखते हैं
Wilder Penfiels
The mind is not brain, the mind acts independent of the brain in the same way as a computer
programmer works.
Roger Sperry
Body does not create the mind ; it ivolves much before the physical body and composes the
neuronic and bio-chemical brain-mechanism as its tool.
John Eccles
Consciousness is extracerebral located within the human-skull along with the brain somewhere
around the same area where orthodox hindus keep their crest. this is the area where fusion of consciousness takes place with the physical brain. this area is called supplementary motor area.
consceousness servives even after the death o f the physical brain.
Erwin Schrodinger
A- In all the world there is no kind of frame-work within which we find consceousness in the
plural, there is some thing we construct because of the temporal plurality of individuals.
But it is a false construction------the only solution to this conflict in so for as any is available
to us at all, lies in the ancient wisdom of upanisad.
B- Consciousness is the real substratum of all matters and it is always singural. It has
no location and uses brain as the receptor- mechanism.
Max Plank
Consceousness I regard as fundamental, we can not get beyond it. Everything we regard as existing ,paschulate consceousness.
Prof. Albert Einstein
Knowledge exists in two forms; lifeless and alive. Lifeless knowledge is stored in books and alve is one,s consceousness.
In the past you have seen many verses of giita regarding mind[मन ]. Infuturetoo ,we
shall be going through some of very important verses of the Giita which will explain what is mind[मन]

क्या सत्य क्या असत्य

सन्दर्भ - सूत्र

15.17, 3.22 संसार तीन लोकों में बिभक्त है ।

15.2, 15.1, 15.3 संसार सीमा रहित एवं अविनाशी है ।

8.16 सभीं लोक पुनरावर्ती हैं ---आज हैं , कल नहीं होंगे और कहीं बन
भी रहे हैं ।

13.33 सूर्य सभींलोकों में प्रकाश का श्रोत है ।

7.8 15.12 सूर्य-चंद्र प्रकाश परमात्मा है ।

10.21 सूर्य एवं चंद्रमा परमात्मा हैं ।

15.6 परम धाम में प्रकाश सूर्य से नहीं होता यहाँ परमात्मा प्रकाश

है।

आप गीता के इन श्लोकों को गहराई से देखें आप को पता चल जाएगा की क्या

सत्य है और क्या असत्य है ।

परमात्मा से परमात्मा में तीन लोक--पृथ्वी,देव-लोक और ब्रह्म-लोक हैं । पृथ्वी को मृयु लोक भी कहते हैं । यदि गीता की बात सत्य है तब हमें यह भी सोचना चाहिए की देव-लोक एवं ब्रह्म-लोक भी हमारे ही सौर्य -मंडल में ही हैं । यदि पूरे ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाएं परमात्मा से परमात्मा में हैं तो सभीं सूचनाओं में परम-प्रकाश होना चाहिए , इस सम्बन्ध में आप jack sarfatti की बात पर भी सोचे जो इस प्रकार है ----------matters are gravitationally trapped light.

परम-प्रकाश को सभीं सूचनाओं में देखा सकता है यदि ----------------
आप को ब्रह्म की खोज का नशा हो ।

श्री कृष्ण और मोसेस

मोसेस और कृष्ण की कहानियाँ रोचक तो हैं ही लेकिन इन दोनों में कुछ समानताएं भी हैं। मोसेस इशापुर्ब 1391 और परम कृष्ण का समय 5561--800 इशापूर्ब का माना जाता है। भारतीय इतिहासकार श्री बी बी लाल कृष्ण को इशापुर्ब 836 वर्ष में मानते हैं । परमका जब जन्म हुआ तब उनके पिता टोकरी में लेकर यमुना नदी पार करके उन्हें गोकुल पहुचाया था । परम के माता-पिता कंश के बंदी थे क्यों की कंस बसुदेव के पुत्रों में अपनी मौत देखता था । श्री कृष्ण बसुदेवके आठवें पुत्र थे और बलराम सातवे पुत्र थे। बलराम भी किसी तरह मथुरा के जेल से नन्द गाँव पहुचे थे । मोसेस जब पैदा हुए उस समय मिश्र में फारोह राजा राज्य कर रहे थे । राजा को ज्योतिशिओं नें कहा था ----एक विशेष तिथी में एक विशेष कुल में जन्म लेने वाला बालक उनके लिए खतरा हो सकता है , अतः राजा ऐसे सभींबच्चों को नील नदी में फेकनें का हुक्म दे दिया था लेकिन मोसेस की माँ मोसेस को कुछ दिन छिपा कर रखा । ज्यादा दिन तो छिपाना सम्भव नही था अतः एक टोकरी में डालकर नील नदी में तैरा दिया । मोसेस तैरते - तैरते एक एक किनारे पर पहुँच गए जहाँ राज घरानें की कोई महिला स्नान कर रही थी , महिला सुंदर बालक को साथ ले आई जो आगे चलकर पैगम्बर बना । नील नदी और यमुना का पानी रंग की दृष्टि से एक सामान है । परम श्री कृष्ण मथुरा से द्वारका चले गए क्योंकि मथुरा के पास उनका रहना वहाँ के लोगों के लिए खतरा बनता जा रहा था , बार-बार कंश के समर्थक आक्रमण करते थे , परमने सोचा की लोगो के हितमें यही उत्तम है की इस स्थान को छोड़ दिया जाय । उधर मोसेस मिश्र को छोड़ कर इस्राइल की ओर चल पड़े । मोसेस इस्राइल तो नहीं पहुँच पाये रास्ते में उनका शरीर जबाब दे दिया था । द्वारका जामनगर में उस स्थान पर है जहाँ गोमती नदी अरब सागर में मिलती है । द्वारका छः बार समुद्र में समां चुकी है और वैज्ञानिकों का अंदाजा है की इस शताब्दी के अंत तक यह वर्तमान द्वारका भी समुद्र में समां जायेगी । इस्राइल साइप्रस और सीरिया के मद्य में पड़ता है। अटलांटिक सागर में उधर अटलांटिस --एक पूर्ण विकशित 9000 वर्ष पुराने शहर के अवशेष मिले हैं जिनसे पताचलता है की वहाँ कभीं एक विकशित सभ्यता थी । ईजिप्ट से इस्राइल तक मोसेसके क्षेत्र में मोसेस मोसेस पेट्रोल मिलता है और इधर जामनगर इलाके में भी पेट्रोल मिल रहा है । विश्व की दो प्राचीनतम सभ्यताएं ----सिंध नदी की सभ्यता और मिस्र की सभ्यता क्रमशः परम श्री कृष्ण और मोसेस से सम्बंधित हैं।

मनुष्य की सोच

मनुष्य संसार में अपनें को भी धोखा देता है ---क्या आप जानते हैं ?
मनुष्य स्वयं को सर्बोच्च शिखर पर देखना चाहता है और उसकी यह चाह उसे बेचैन बना रखी है। मनुष्य जीवों में सम्राट है लेकिन वह स्वयं से भी भयभीत रहता है --क्यों? यह सोचनें का बिषय है। हम मुट्ठी खोलना नही चाहते पर जो मुट्ठी में नहीं है उसे भरना भी चाहते हैं --
क्या यह सम्भव है? बंद मुट्ठी में भरनें की चाह को कामनाकहते हैं। कामना में धनात्मक अंहकार होता है जिसमें फैलाव आता है आदमी संपर्क बढाता है, मित्र बनाता है । जो चीज
मुट्ठी में है वह कहीं सरक न जाए, इसकी सोच मोह उपजाती है , मोह भी कामना है जिसमें
सिकुड़ाहुआ नकारात्मक अंहकार होता है, जिसमें मनुष्य लोगों से दूर भागना चाहता है, अकेला रहना चाहता है और लोगों को भय के साथ देखता है । कामना की एक और स्थिति
होती है ---लोभ, लोभ में भी भय के साथ-साथ कमजोर अंहकार होता है, जो हमारे पास नही
है वह बिना मुट्ठी खोले हमारे मुट्ठी में आजाये का भावका नम ही लोभ है।
कामना,लोभ और मोह का समीकरण आपनें अभी देखा अब आप इस पर सोचें और समझनें का प्रयत्न करे की हमें क्या परेशानी है? गीता कहता है ------- काम, क्रोध,लोभ
और मोह परमात्मा के राह के अवरोध हैं।

ध्यान-सूत्र [१]

  1. यहाँ स्वर्ग -प्राप्ति सब का उद्देश्य है,लेकिन क्या आप जानते हैं कि स्वर्ग से परमात्मा का द्वार नहीं दिखता,मृत्यु-लोक में वैराग - माध्यमसे परमात्मा का द्वार दिखता है।
  2. गुणों से सम्मोहित मन नरक कीओर खीचता है, लेकिन रिक्त मन परमात्मा से जोड़ता है।
  3. शांत-मन दर्पण पर परमात्मा प्रतिबिंबित होता है।
  4. परमात्मा की राह पर भोग पीठ पीछे होता है और अंदर परम शुन्यता होती है।
  5. जब सभी द्वार बंद होजाते हैं, कुछ समय पूर्ण शुन्यता का आलम होता है, आखों से आशू रुकते ही नही तब एक खिड़की खुलती है, जिससे एक किरण आती दिखाती है , वह किरण अंदर ह्रदय में कम्पन पैदा करती है,जो स्वयं परमात्मा से होती है और शरीर के रग-रग में परम-ऊर्जा का संचार कर देती है।
  6. परमात्मा की खोज जब तक खोज है, परमात्मा दूर ही रहता है,लेकिन जब खोज में खोजी खो जाता है तब परमात्मा अवतरित होता है।
  7. द्वैत्य में अद्वैत्य का आभाष परमात्मा से जोड़ता है।
  8. साकार में निराकार की अनुभूति ही परमात्मा की अनभूति है।
  9. परा भक्त के लिए परमात्मा निराकार में नहीं रहता ।
  10. निराकार मायामुक्त जब साकार रूपमें माया से प्रकट होता है तब माया से वह धीरे-धीरे घिरनें लगता है, माया साकार परमात्मा को भी नहीं छोड़ती जो परमात्मा से ही है।
  11. मायामुक्त योगी परम - तुल्य होता है।

वासना क्या है?

तन्त्र कहता है ............वासना के बिषय बदलनें से क्या होगा? और बुद्ध कहते हैं......वासना दुष्पूरहै।
वासना है क्या?
चाह वासना का सूचक है,वासना समयाधीन है जो हर पल अपना रंग-रूप बदलती रहती हे ह्रदय में भाव उठते हैं,
जो विकार रहित होते हैं । ह्रदय में उठा भाव जब मन-बुद्धि तन्त्र में पहुचता हे तब वही भाव वासना का रूप धारण
कर लेता हे ।
वासना-तत्त्व
काम,आसक्ति,संकल्प-विकल्प,कामना,क्रोध,लोभ,मोह,अंहकार,भय एवं आलस्य वासना - तत्त्व हैं । वासना गुणों
से उठती है
सात्विक-वासना
सात्विक वासना में सघन तीब्र अंहकार होता है जो अपनें में कामना को छिपाकर रखता है ।
राजस-वासना
राजस-वासना में धनात्मक-अंहकार के साथ कामना,लोभ,क्रोध होता है ।
तामस-वासना
तामस-वासना में मोह,भय के साथ नकारात्मक अंहकार होता है जो ब्यक्ति को एकांत में लेजाता है।
ध्यानमें इन पर होश बनाना पड़ता है.......
  • जहाँ आसक्ति है वहां काम,कामना,क्रोध तथा लोभ भी होंगे।
  • जहाँ चाह है वहाँ राम नहीं होते।
  • जहाँ मोह है वहाँ भय के साथ आलस्य भी होगा।
  • जहाँ काम का सम्मोहन है वहा राम का होना संभव नहीं।
  • काम,क्रोध तथा लोभ नरक के द्वार हैं।
  • काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है।
  • केवल आत्मा केंद्रित योगी काम के प्रभाव में नहीं आता ।
  • योगी और राम के बीच राजस-तामस गुणों की दीवार होती है ।
  • मोह के साथ वैराग सम्भव नही।
  • वैराग के बिना परमात्मा को जानना सम्भव नहीं।
  • गुणों से अप्रभावित योगी परमतुल्य होता है ।

स्मृति-रहस्य

स्मृति का सम्बन्ध मन से है। इन्द्रियो का अनुभव मन में संग्रहितहोता रहता है। मन समय-समय पर उन अनुभवों के ऊपर मनन करता रहता है। मन के मनन में बुद्धि उसको मदत करती है। मनन से दो प्रकार की बातें निकलती हैं--पहली बात ...मनुष्य मनन के आधार पर कर्म करता है और दूसरी बात है....मनन में आदमी खोता चला जाता है। कर्म के आधार पर कर्म-फल मिलता है जिससे सुख-दुःख का अनुभव होता है। मनन में खोना एक गंभीर बात है। जैसे-जैसे मनन गहराता है मन विचारों से विचार-शुन्यता की ओर जानें लगता है। विचार-शुन्यता का अनुभव ही ध्यान कहलाता है । ध्यान की गहराईमें जो मिलत है-उसको परमात्मा- मय अनुभूति कहते हैं। जब विचारों के प्रति होश रहता है तब विचार-शुन्यता आती है और जब होश नहीं होता तब विचार मन के अंदर गहराई में पहुंचनें लगते हैं --जैसे-जैसे विचार गहराईमें पहुंचते हैं , और सघन होजाते हैं। मन के केन्द्र पर पंहुचा विचार आत्मा के नजदीक हो जाता है। अब आप गीता के निम्न श्लोकों पर नजर डालें-----------------------
श्लोक-8.6 अंत काल तक की सघन स्मृति मनुष्य के अगले जन्म को निर्धारित करती है।
श्लोक-15.8 आत्मा के साथ मन तथा इन्द्रियां भी होती हैं।
श्लोक-10.22 इन्द्रीओं में मन,परमात्मा है।
श्लोक-4.4 अर्जुन का चौथा प्रश्न है-----सूर्य का जन्म सृस्ती के प्रारम्भ में हुआ था और आप वर्तमान में हैं फ़िर आप उन्हें काम-योग के सम्बन्ध में कैसे बताये?
श्लोक-4.5 कृष्ण कहते हैं---तेरे-मेरे पहले बहुतसे जन्म होचुके हैं जिनकी स्मृति तुमको नहीं है पर उनकी स्मृति मुझे है ।
श्लोक-14।14,14.15
मृत्यु के समय यदि सात्विक विचार सघन होते हैं तब स्वर्ग मिलाता है लिकिन स्वर्ग में रहनें के
बाद पुनः जन्म लेना पड़ता है। यदि मृत्यु के समय भोग विचार सघन हों तब भोग के लिए नया
जन्म मिलता है तथा यदि तामस विचार से मनुष्य भावित है तब पशु एवं अन्य योनी मिलती है।
गुनातीत योगी आवा-गमन से मुक्त हो जाता है।
पिछले जन्मों की स्मृति में पहुँचने के विज्ञानं को बुद्ध आलय - विज्ञानं की संज्ञा देते हैं और महावीर इस विज्ञानं को जाती स्मरण कहते हैं।

आप जानते हैं?----भाग-१

जन्म से माँ से बिछुड़ा बच्चा माँ की गोदी की तलाश जीवन भर करता है ....क्यों?
विज्ञानं की राय
विज्ञानं में एटम एक इतना छोटा कण है जिस को आँख से देखना कठिन है। एटम का एक नाभि-केन्द्र होता है
जिसमें दो कण --प्रोटोन एवं नयूत्रोन होते हैं। प्रोत्रोन -नयूट्रआन क्वार्क्स जोडों से बनें होते हैं। एटम के चारों
तरफ़ एलेक्ट्रोनउसका चक्कर लगता रहता है। अब कण वैज्ञानिक कह रहे हैं ---सभी पदार्थों की रचना छःजोड़े
लेप्तोनसे होती है --लेप्तोन भी क्वार्क्स की तरह अस्थिर अति छोटे कण हैं। विज्ञानं में पदार्थो की रचना जोड़े कडोंसे
हुयी मानी जाती है और सृष्टीनर-मादा जोड़े से आगे चलती है।
प्रकृत की सृजनता को समझो
विज्ञानं कहता है ......
एटोमिक - फिजनमें दो हलके कण आपस में जब जुड़ते हैं तब बहुत उर्जा निकलती है और दो मिल कर एक भारी
कण का निर्माण करते हैं। सृष्टि में दो कण जब मिलते हैं तब उनमें एक और कण आ मिलाता है जिसको जीवात्मा कहते हैं। जीवात्मा में मन,बुद्धि एवं चेतना होती है। जीवात्मा को हम आगे चल कर बिस्तार से देखेंगे।
विज्ञानं सिंगल फीजन की बात करता है लेकिन प्रकृत में डबल फीजन होता है।
विज्ञानं कण-भौतिकी में एटम में नाभि-केन्द्र का चक्कर एलेक्ट्रोन लगाते रहते हैं और यदि एक
से अधिक एलेक्ट्रोन हों तो वे आपस में अपने द्वारा उत्पादित फोतोंसके माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान
भी करते हैं।
माँ-बच्चे में क्या होता है?
माँ की गोदी का बच्चा गोदी से जुदा होनें पर जीवन भर गोदी को खोजता रहता है। माँ बच्चे का नाभि-केन्द्र होती है, बच्चा उसका एलेक्टोंन होता है जो अपने नाभि-केन्द्र को खोजता रहता है। अब हम एक और
पहलू पर विचार करते हैं, माँ - बच्चे की चेतनाओं से चेतन- कण निकलते रहते हैं जो आपस में चेतन मयी
सूचनाओं का आदान-प्रदान करते रहते हैं जिसका पता इन्द्रीओं को नहीं चल पता लेकिन भावात्मक संवेदना
दोनों के हृदयों में बहती रहती है। विज्ञानं का एटम अपनें एलेक्त्रोंन को अपनी तरफ़ खिचता रहता है और माँ का
चेतन मय कण अपनें बच्चे को पुकारता रहता है।
आप क्या माँ की गोदी को भला भुला सकते हैं?

आइंस्टाइन क्या थे?

आइंस्टाइन एक वैज्ञानिक थे या एक ऋषि? आज यह प्रश्न वैज्ञानिकों के दिमाकमें उठ रहा है,आप भी इस बिषय पर कुछ सोच सकते हैं।
* आइंस्टाइन को कैसे पता चला की हमारे गलेक्सी के नाभि-केन्द्र में एक विशाल ब्लैक -होल है जबकि उस समय तक विज्ञानं के पास इतनें साधन उपलब्ध नहीं थे।
* उन्हें कैसे पता चला कि बुद्ध -ग्रह की लम्बी अक्सिस दस हजार साल में एक अंश सूर्य की ओरझुक जाती है।
* उनको कैसे पता चला कि टाइम-स्पेस फ्रेम सीधा नहीं है।
* वे कैसे जान पाए कि भारी ग्रहों के पास से गुजरनें पर सूर्य कि किरण उस ग्रह की ओर झुक जाती है।
* वे कैसे जानें कि ग्राविटी और प्रकाश की गतियाँ समान हैं।
* जबतक यह भी पता न था कि एटम में एलेक्ट्रोनके अलावा और क्या-क्या हैं उस समय उन्होंने मॉस-एनर्जी
समीकरण कैसे दिया।
बहुत सारे प्रशन हैं जो आप को विवश कर देंगे यह सोचनें के लिए कि...........
आइंस्टाइन क्या थे।

गीता-मर्म

गीता -मर्म के माद्यम से निम्न बातों को देखनें से यह सम्भव हो सकता हैकि इंद्रियों से बुद्धि तक की ऊर्जा का रूपांतरण होजाए और बुद्धि का आखिरी बंद दरवाजा खुले जिसके माद्यम से वह दिखे जिसकी हमारी जनम-जनम से चाह है यहाँ आप निम्न बातों को देखें ...........

१- जब आप कोई चीज देखते हैं तब निम्न प्रश्न अंदर उठते हैं............

क-यह क्या है?

ख-कहाँ से आई है

ग-कौन लाया है

घ-क्यों लाया है

लेकिन क्या इन प्रश्नों को आपनें स्वयं से पूछा है
की आप कौन हैं , किससे हैं, क्यों हैं ?
इन प्रश्नों का उत्तर का नाम ही गीता है ।
WHO AM I ? The awareness of I is meditation.

आइंस्टाइन और गीता

क्या आप जानते हैं किआइंस्टाइन को गीता प्रियतम था ?
आइंस्टाइन कहते हैं ........when i read bhagvat-geeta and reflect about how God created this
universe,everything else seems so superfluous। सन १९१७ में आइंस्टाइन का वह शोध-पत्र जिसमें
ब्रह्माण्ड -रहस्य छिपा हुआ है ,उसकी प्रेरणा गीता के श्लोक ८.१६ से ८.२० तक,२.२८,७.४ से ७.६ तक,१४.३,
१४.४,१३.५ एवं १३.६ से मिलीथी अब हम इन सूत्रों का सारांश देखते हैं
आनंद बुद्ध से पूछते हैं.......भंते! परमात्मा क्या है? बुद्ध कहते हैं........परिभाषा उसकी होती है जो होता है
परमात्मा तो होरहा है गीता श्लोक २.२८ भी यही बात भूतों के बर्तमान अस्तित्वके सम्बन्ध में कह रहा है
सब का जीवन एक यात्रा है जो अब्यक्त से प्रारम्भ होती है और अब्यक्त में समाप्त हो जाती है
गीता बताता है ......ब्रह्मलोक सहित सभींलोक पुनरावर्ती हैं अर्थात परमात्मा को छोड़ कर सभी सूचनाएं
टाइम-स्पेस के अधीन हैं भूतों कि रचना अपरा एवं पराप्रकृतियों के नौतत्वों तथा आत्मा-परमात्मा
से हैचार युगों कि अवधिसे हजार गुना अवधि में भुत होते हैं और इसके बाद इतनें ही समय तक पुरा
ब्रह्माण्ड रिक्त होता है जिसमें कुछ नहीं होता विज्ञानं का विकास -सिद्धांत में एक कोशिकीय जीवों
से बहु कोशिकीय जीवों के विकास कि बात हम देखते हैं लेकिन गीता का विकास-सिद्धांत गीता श्लोक
अद्याय ७,१३ तथा १४ के सूत्रों में छिपा है मनुष्यों के होनें कि बात मात्र चार युगों तक सीमित है फिर
चार युगों कि अवधि से ९९९ गुने अवधि जिसमें मनुष्य नहीं होता पर जीव होते हैं वह जीव किस प्रकार
के होते होंगे.....आप ईस रहस्य को गंभीरता से ले